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________________ [ ५४] पुत्रजन्मनि संजात प्रतिसुप्रीतिके किये । प्रियोदयश्च स्रोत्साहः कर्तव्यों जातकर्मणि ॥५॥ सबनेषु परा प्रीतिः पुत्र सुप्रीमिरुच्यते । प्रियोदवाव पेपत्तास्तु क्रियते महान् ॥ १२ ॥ यह सब कयन मी मगजिनसेनाचार्य के विरुद्ध है-क्रमविरोध को मी लिये हुये है-और इसमें 'प्रीति बादि तीनों क्रियाओं का माखरूप दिया है बह बड़ा ही विलक्षण जान पड़ता है। भादिपुराण के साथ उसका कुछ भी मेल नहीं खाता; जैसा कि आदिपुराण के निन्न वाक्यों से प्रकट है-- पर्माधानास्परं मासे हतीय संप्रवर्तते । प्रीतिनाम क्रिया प्रीयांऽनुप्ठेया दिजन्ममिः ॥ ७ ॥ माधानात्पंचमे मासि किया सुप्रीतिरिष्यते। था सुगनप्रयोगव्या परमोपासकवतैः ।।८० ॥ मियोदयः प्रसूनायां जातकर्मविधिः स्मृतः। जिनजातकमायाय मवलों योयथाविधि ८५ -वौं पर्व। पिछले लोक से यह मी प्रकट है कि आदिपुराण में जातकर्मविधि' को ही 'प्रियोद्भव क्रिया बतलाया है । परन्तु मट्टारकजी ने प्रियोद्भव' को 'जातकर्म से मिन्न एक दूसरी क्रिया प्रतिपादन किया है। यही वजह है बो उन्होंने अध्याय के अन्त में, प्रतिपादित क्रियामों की गणना करते 'हुए, दोनों की गणना क्षगायलग क्रियाओं के रूप में की है। और इसलिये पापका यह विधान मी बिनसेनाचार्य के विरुद्ध है। एक बात और भी बतला देने की है और वह यह कि, भरएकजी ने 'नातकर्म विधि में 'जननाशौच 'को भी शामिल किया है और उसका कथन छह पचों में दिया है। परंतु 'बननाशैच' को मापन भवग क्रिया भी बतलाया है, तब दोनों में कान्तर क्या रहा, यह
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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