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________________ भूमिका। वर्षाका जल जिस शुद्ध रूपमें बरसता है, उस रूपमै नहीं रहता। आकासे नीचे उतरते उतरते और जलाशयोंमें पहुँचते पहुँचते वह विकृत हो जाता है और इसके बाद तो उसमें खनी विकृतियों उत्सम हो जाती हैं कि उनके मारे उसके वास्तविक स्वामका हदयंगम कर सकना मी दुष्कर हो जाता है। फिर भी नो बस्ततत्वके मर्मज्ञ है, पदायोका विश्लेषण करनेमें कुशल या परीक्षाप्रधानी है, उन्हें उन सब विकृतियोंसे पृथक् वास्तविक मलका पता लगानेमें देर नहीं लगती है। परमहितैषी और परम धीवराग भगवान महावीरकी वाणीको एक कविने बलष्टिकी उपमा दी है, जो बहुत ही उपयुक मालम होती है। पिछले साई इमार वर्षाका उपन्य इतिहास हमें बताता है कि माबान्का विश्वकल्याणकारी समीचीन धर्म जिस समें उपदिष्ट हुमा था, उसी रूप में नहीं रहा, धीरे धीरे वह विकृत होता गया, ज्ञात और महातरूपसे उसे विकृत करनेके बराबर प्रयत्न किये जाते रहे और अब तक किये जाते हैं। सम्प्रदाय, संघ, गण, गच्छ, माम्नाय, पन्य आदि सब प्राइन्ही विकृतियोंके परिणाम है । भगवानका धर्म सबसे पहले दिगम्बर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदायमि विभक हुमा, और उसके बाद मूल, मापनीय, प्रविष, काछा, माघर, मादि नाना संघों और उनके गणों तथा गच्छों में विकृत होता रहा है। यह असंभव है कि एक धर्मके इतने भेद प्रमेद होते जायें और उसकी मूब प्रकृतिपर विकृतियों का प्रभाव नहीं पड़े। यद्यपि सर्वसाधारण जन न सम्प्रदायों और पन्योंके विकारसे विकृत हुए धर्मका वास्तविक मुख स्वक्षम अवधारण नहीं कर सकते है। परन्तु समय समयपर ऐसे विचारशील विवेकी महात्मामोंका जन्म अवश्य होता रहता है जोन सब विकारोंका अपनी रासायनिक मार विश्लेषक खिसे भूषवरण करके वास्तविक धर्मको स्वर देख लेते हैं और दूसरोंको दिखा जाते हैं। जो लोग यह समझते हैं कि वर्तमान जैनधर्म ठीक वही जैनधर्म है जिसका उपदेश भगवान महावीरकी विष्यवाणीद्वारा हुआ था, उसमें बरा भी परिवर्तन, परिषदन या सम्मेलन नहीं हुआ है अक्षरशा ज्योका त्यों पड़ा भा रहा है, उन्हें धर्मात्मा या श्रवाल भले ही मान लिया बाबपरन्तु विचारशील नहीं कहा जा सकता। यह समव है कि उन्होंने शास्त्रका अध्ययन किया हो, वे शास्त्रीया पण्डित कहलाते हों, परन्तु शान पड़ने या परीक्षायें देनेसे ही यह महीं कहा जा सकता है कि वे इस विषयमें कुछ गहरे बैठ सके हैं। जो लोग यह जानते हैं कि मनुष्य रागदेषसे पुक है, अपूर्ण हैं और उनपर देश-कालका कल्पनातीत प्रभाव पाता है, वे इस वावपर कमी विश्वास नहीं करेंगे
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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