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________________ पाशमण्डलमार्जाविषशमशानवान : न पापं च अमी देयास्तृतीय स्थानगुणवतम् ॥ १९॥ इसमें मनदंडविरतिका सातिविषाला लक्षण नहीं है और न उसके पाँच मेदोंका कोई उलेख है। बल्कि यहाँ इस प्रतका ओ कुछ लक्षण अथवा स्वल बतलाया गया है यह मनदंडके पाँच भेदों से 'हिंसाप्रदान' नामके चौथे भेद की पिरतिसे ही सम्बन्ध रखता है। इसलिये, सर्वार्थसिद्धिकी दृष्टिसे, यह लक्षण लक्ष्यके एक देशमें न्यापनेके कारण अध्याति दोष दूषित है, और कदापि सायसिद्धिके कांका नहीं हो सकता। इस प्रकारके विभिन्न कथनों भी यह प्रन्य सर्वार्थसिक्केि कर्ता श्रीपूज्यपाद स्वामीका बनाया हुमा मालन नहीं होता, तब यह अन्य दूसरे कौनसे पूज्यपाद भाचार्यका बनाया हुमा है और कब बना है, यह बात अवश्य जाननेके योग्य है और इसके लिये विद्वानोको कुछ विशेष अनुसंधान करना होगा। मेरे ख्याछमें यह अन्य पं० आशापरके बादका-१३वीं शताब्दीसे पीछेका बना हुआ मालूम होता है। परंतु ममी में इस बातको पूर्ण निश्चयके साथ कहने के लिये तयार नहीं है। विद्वानोको चाहिए कि वे स्वप इस विषयकी खोन करें, और इस बातको मालूम करें कि किन किन प्राचीन ग्रन्थों में इस ग्रन्थके पोका उनेल पाया जाता है। साथही, उन्हें इस अन्यकी दूसरी प्राचीन प्रतियोंकी मी खोन लगानी चाहिए। संभव है कि उनमेंसे किसी प्रतिमें इस प्रन्यकी प्रशस्ति उपलब्ध हो आय ।। इस लेखपरसे पाठकोंको यह बतलानेकी जरूरत नहीं है कि मंडारोंमें कितने ही अन्य कैसी संदिग्धावस्थामें मौजूद हैं, उनमें कितने अधिक क्षेपक शामिल हो गये हैं और वे मूल प्रन्यकाकी कृतिको समझनेमें क्या कुछ प्रम उत्पन्न कर रहे हैं। ऐसी हालत में, प्राचीन प्रतियों परसे अन्योंकी जांच करके उमको यथार्य स्वाम प्रगट करनेकी मोर उसके लिये एक जुदाही विभाग स्थापित करनेकी कितनी अधिक जरूरत है, इसका अनुभव सादर पाठक स्वयं कर सकते हैं। प्राचीन प्रतियाँ दिनपर दिन नष्ट होती जाती है। उनसे शीघ्र स्थायी काम ले लेना चाहिए। नहीं तो उनके नष्ट हो मानेपर यथार्थ वस्तुस्थितिके मालम करनेमें फिर बड़ी कठिनता होगी और अनेक प्रकारकी दिक्कतें पैदा हो जायेगी । कमसे कम उन खास खास प्रन्योंकी पाँच तो जरूर हो नानी चाहिए जो बडे बडे प्राचीन भाचायोंके बनाये हुए मषा ऐले माघाकि नामसे वामांकित है और इसलिये उनमें नसी नामके प्राचीन भाचायोंके बनाए हुए होनेका प्रम उत्सम होता है। आशा है, हमारे दादी माई इस विषयको उपयोगिताको समझकर उसपर जरूर ध्यान देनेकी छमा-करेंगे। सरसावा, जि. सहारनपुर। मा० २५ नवम्बर सन् १९२१ . जुगलकिशोर मुख्तार
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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