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________________ [२३६] मिन छुदोंमें भी रहने दिया है; जिससे अन्तमें जाकर प्रयका अनुष्टुप् छंदी नियम भंग हो गया है। वस्तु इन पाँचों पथमेसे पहला पच रामूने के तौरपर इस प्रकार है: - तं द्वादशमेदमिषं यः आवकीयं जिननाथरष्टम् । करोति संसारनिपातमीतः प्रयाति कल्याणमसी समलम् ॥१४७६ ॥ यह पद्य अमितगति - परीक्षाके ११ वें परिवृंद में नं० ६७ पर दर्ज है । इस पद्यके बाद एक पद्य और इसी परिच्छेदका देकर तीन पक्ष २० वें परिच्छेद से उठाकर रक्खे गये हैं, जिनके नम्बर उक्त परिच्छेद में क्रमशः ८७, ८८ और ८९ दिये हैं। इस २० में परिच्छेदके शेष सम्पूर्ण पथोंको, जिनमें धर्मके अनेक नियमों का निरूपण था, ग्रंथकर्तने छोड़ दिया है। इसी प्रकार दूसरे परिच्छेदोंसे भी कुछ कुछ पद्म छोड़े गये हैं, जिनमें किसी किसी विषयका विशेष वर्णन था | अमितगति धर्मपरीक्षा की पचसंख्या कुल १९४१ है जिनमें २० पर्योकी प्रशस्ति भी शामिल है, और पद्मसागर - धर्मपरीक्षाकी पद्मसंख्या प्रशस्तिसे अलग १४८० है; जैसा कि ऊपर जाहिर किया जाचुका है। इसलिए सम्पूर्ण छोड़े हुए पद्योंकी संख्या लगभग ४४० समझनी चाहिए। इस तरह लगभग ४४० पद्योंको निकालकर, २१४ पद्योंमें कुछ वृंदादिकका परि वर्तन करके और शेष १२६० पद्योंकी ज्योंकी त्यों नख उतारकर ग्रंथकर्त्ता श्रीपद्मसागर गणीने इस 'धर्मपरीक्षा' : को अपनी कृति बनानेका पुण्य सम्पादन किया है ! जो लोग दूसरों की कृति को अपनी कृति बनाने रूप पुरुष सम्पादन करते हैं उनसे यह भाशा रखना तो व्यर्थ है कि, वे उस कृति के मूल कर्ता का ध्यादरपूर्वक स्मरण करेंगे, प्रत्युत उनसे जहाँतक बन पड़ता है, वे उस कृतिके मूलकर्ताका नाम छिपाने या मिटाने की ही चेष्टा किया करते हैं ऐसा है। यहाँ पर पद्मसागर गणीने भी किया है। अमितगतिका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना तो दूर
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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