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________________ मे उनपर आक्रमण नहीं किया उसी प्रकार यायद आपकायों की अवहेचना कर कुछ बयान करके उन जैन विद्वानों ने मिलके परिवार में यह ग्रंथ अबतक माता रहा है इसका वैसा चाहिये पैस विरोष नहीं किया । परतु भार्षवाक्य और पार्षवाक्यों के मनुकूच करेगये इसरे प्रतिष्ठित विद्वानों के पाय अपने अपने स्थान पर माननीय तप पूचनीय है। महारानी ने उन्हें यहा मधर्म, मेनसिद्धान्त, नैनन्नति तपा नैशियर मावि से विरोध रखने वाले और बनाव से गिरे हुए कपनों के साथ में गुय कर अषया मिनाकर उनका दुपयोग किया है और इस तरह पर समूचे अंथ को विधमिमित भोजन के समान बना दिया है, को त्याग किये जाने के योग्य है। विपमिश्रित भोधन घार विरोध किस प्रकार मोचन का विरोध नहीं कहलाता उसी तरह पर इस त्रिवर्याचार के विरोध को भी पार्षयाश्यों अथवा नशाखों का विरोध या उनकी कोई अवहेलना नहीं का वा सकता जो योग अमवस अभीतक इस ग्रंथ को किसी और ही रूप में देख रहे थे जैन शाम के नाम की मुहर लगी होने से इसे साक्षात् बिनसायी अश्या बिनवासी के तुल्य समझ रहे थे और इसलिये इसकी प्रकट विरोधी पायों के लिये भी अपनी समझ में न भाने वाले विरोध की कल्पनाएँ करके सन्न होते थे---उन्हें अपने उस अज्ञान पर अब बलर खेद होगा, वे भविष्य में बहुत कुछ सतर्क तथा सावधान हो जायगे मोर बोबी इन त्रिवाधार से मारकीय ग्रंथों के मागे सिर नहीं मुकाणे। पालब में, यह सब ऐसे अंगों का ही प्रताप है जो जनसमाज अपने मादर्श से गिरकर विजकुछ ही अनुदार, अन्धश्रद्धालु तथा संकीर्णहृदय धनगया है, उसमें अनेक प्रकार के मिथ्यात्वादि कुसंस्कारों ने अपना घर बना लिया है और यह बुरी तरह से कुरीतियों के बार में
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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