SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२३] थाचं कुर्वन्ति मोहेन क्षयाहे पितृतर्पणम् । काऽऽस्ते मृतः समभाति कीशोऽसौ नरोत्तम ॥ २६ ॥ किशान कीदृशं कार्य फेन ए पदव नः । मिएम प्रभुक्का तु पक्षि यान्ति व प्रामणाः ॥ ३०॥ कल्य श्राद्ध प्रदीयेत सा तु श्रद्धा निरधिका । • अन्य प्रवक्ष्यामि घेवानां कर्मवाहणम् ॥ ३१ ॥ इन वाक्यों में श्राद्ध को साफ तौर पर 'पितृतर्पण' लिखा है, और उससे श्राद्ध का जोश्य भी कितना ही स्पष्ट हो जाता है। साथ ही यह बतलाया है कि जिस (पितृप्ति उद्देश्य को ) श्रद्धा से उसका विधान किया जाता है वह श्रद्धाही निरर्थक है-उसमें कुछ सार ही नहीं-इस श्राद्धसे पितरोफी कोई तृप्ति नहीं होती किन्तु ब्राह्मणों की वृप्ति होती है । इसी तरह पर गत पुराण के १३ वें अध्याय में भी दिगम्बर जैनों की ओर से श्राद्ध के निषेध का उल्लेख मिलता है। । ऐसी हालत में जैनमंथों से श्राद्धादि के निध-विषयक अवतरणों के देने की जो बहुत कुछ दिये जा सकते हैं यहाँ कोई जरूरत मालूम नहीं होती । जैनसिद्धांतों से वास्तव में इन विषयों का कोई मेल ही नहीं है। और अब तो बहुत से हिंदू भाइयों को भी श्रद्धा श्राद्ध पर से उठती जाती है और ये उसमें कुछ तत्व नहीं देखते । हाल में स्वर्गीय मगनलाल गाँधीबी के विषको धीरपुत्र केशव माई ने अपने पिता की मृत्यु के १० वें दिन को मार्मिक उद्गार महात्मा गांधीनी पर प्रकट किये हैं और जिन्हें महात्माजी ने बहुत पसंद किया तथा कुटुम्बीननों ने भी अपनाया वे इस विषय में बड़ा ही महत्व रखते हैं और उनसे कितनी ही उपयोगी शिक्षा मिलती है । वे उद्गार इस प्रकार हैं:___ "श्राद्ध करने में मुझे श्रद्धा नहीं है। और असत्य 'तथा मिथ्या का माचरण कर मैं अपने पिता का तर्पण
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy