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________________ [२१] वाक्यों से प्रकट है जो कि ३६ अध्याय में एक दिगम्बर साधुलारा, राजा 'वन को जैनधर्म का कुछ खास बताते हुए, कहे गये हैं। पित नास्ति नानिश्चिदेविकम् । कृष्णस्य तथा पूजा ईन्द्रध्यानमुचमम् १५ एष धर्मसमाचारों जैनमार्ग प्रशते । पास सर्वमान्या जैनधर्मस्य बजाम् ॥२०॥ और मैनियों के 'यशस्तिक' प्रब से भी इस विषय का सम. न होता है। जैसाकि उसके पौष मास के निम्न धारूप से प्रकट है, बोकि राजा यशोधर की वैनधर्म-विषयक श्रद्धा को हटाने के लिये उनकी माता द्वारा, एक वैदिकधर्मावलम्बी की धष्टि से बैनधर्म की त्रुटियों को बताते हुए, कहा गया है। मतपय देवरितविमानालागस होमस्य न चास्ति पाता। भुने मतदातरे व धास्ते में कथं पुत्र ! दिगभराणम् ॥ भाद-विस धर्म में देषों, पितरों तथा दिना (ऋषियों) का तर्पण नहीं, (श्रुतिस्मृतिविहित । सान की--उसी पाग लान - और होमको वार्ता नहीं, और नो श्रुति-स्मृति से अत्यन्त बाम है इस दिगम्बर जैनधर्म पर है पुत्र! तेरो बुद्धि कैसे ठहरती है। तुम कैसे उसपर भवा होती है। इतने पर भी सोनामी, मपने अनुवाद में, महाकवी कास सहाविषयक कान को बैनधर्म का कथन बतखाने का साहस करते हैंबिखते हैं "यह तर्पण आदि का विधान देगर्भ से बाहर का नहीं है किन्तु मेमधर्म का ही "मापने, कुछ मनुवादों के साथ में बचे बन्ने भावार्थ जोड़कर, महारकबी के कथन को निस तिस प्रकार से बेमधर्म का पन सिद्ध करने की बहुतेरी चेष्टा की, परन्तु भाप इसमें - कार्य महा छ सके। और इस पेष्य में पाप कितनी ही खटपग बातें
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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