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________________ [२०६] करते हुए जान पड़ते हैं--और न अब इस परीक्षालेख को पढ़ जाने के बाद कोई यह कहने की हिम्मत कर सकता है कि इस ग्रंथ में निन वाक्यों के साथ 'अथ विशेषा' 'अन्यमतं' अथवा 'परमत' जैसे शब्द लगे हुए हैं वेही जैनमत से बाहर के श्लोक हैं, बाकी और सब जैन-' मत के ही श्लोकों का इसमें संग्रह है, क्योंकि ऐसे चिन्हों से रहित दूसरे पचासों लोकों को अनैनमत के सिद्ध किया जा चुका है और सैकड़ों को और भी सिद्ध किया जा सकता है। फिर भी यदि यह मान लिया नाय कि ये श्लोक अजैनमत के ही हैं तो उससे नतीबा ? दूसरे मत के लोकों का उद्धरण प्रायः दो घटियों से किया जाता है अपने मत को पुष्ट करने अथवा दूसरों के मत का खण्डन करने के लिये । यहाँ पर उक्त श्लोक दोनों में से एक भी दृष्टि को लिये हुए नहीं है वैसे ही (स्वयं रच कर या अपना कर ) प्रथ का अंग बनाये गये हैं। और इसलिये उनके अनेन होने पर भी महारकजी की जिम्मेदारी तथा उनके प्रतिपाच विषय का मूल्य कुछ कम नहीं हो जाता। अतः उन पर अन्य मत का प्रावरण डालने की चेष्टा करना निरर्थक है। इसके सिवाय, सोनीजी ने अपने इस लेख में कई जगह बड़े दर्प के साथ इन सब श्लोकों को 'मनुस्मृति' का बतलाया है, और यह उनका सरासर झूठ है। सारी मनुस्मृति को टटोल जाने पर भी उसमें इनका कहीं पता नहीं चलता। जो लोग अपनी बात को ऊपर रखने और दूसरों की आँखों में धूल डालने की धुन में इतना मोटा और साक्षात् झूट लिख जाने तक की धृष्टता करते हैं के अपने विरुद्ध सत्य पर पर्दा डालने के लिये जो भी चेष्टा न करें सो थोड़ा है। ऐसे अटकलपच्यूऔर गैरजिम्मेदाराना तरीके से लिखने वालों के वचन का मूल्य 'मीक्याहोसकता है। इसे पाठक स्वयं समझसकते हैं।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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