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________________ [ १६४ ] विवाहिता ( तुरत की ब्याही हुई) और सदोपभर्तृका अथवा सम्बन्धदूषित स्त्रियों के पुनर्विवाह का तो निषेध किया हो, जिनका पद्म नं० १७४, १७५ में उल्लेख है, और विधवाओं के पुनर्विवाह का निषेध न किया हो। मैं तो समझता हूँ गालवजी ने दोनों ही प्रकार के पुनर्विवाहों का निषेध किया है और इसीसे उनके मत का ऐसे सामान्य बच्चन द्वारा उल्लेख किया गया है। हिन्दुओं में, जिनके यहाँ 'नियोग' भी विधिविहित माना गया है, 'पराशर' जैसे कुछ ऋषि ऐसे भी हो गये हैं जिन्होंने विधवा और सपा दोनों के लिये पुनर्विवाह की व्यबस्था की है * । गालव ऋषि वन से भिन्न दोनों प्रकार के पुनर्विवाहों * जैसा कि पाराशर स्मृति के जिसे 'कली पाराशराः स्मृता: चाय के द्वारा कलियुग के लिये खास तौर से उपयोगी बताया गया है-निवाक्य से प्रकट है: Pante न सृते ममजिते पसीने च पतिले पती । पंचखापत्सु नारीणां पतिरन्यो विषयते ॥। ४-३० ॥ इसमें लिखा है कि पति के जो जाने-- देशान्तरादिक में आकर सापता हो जाने-मर, जाने, सन्यासी बन जाने, नपुंसक तथा पतिस हो जाने रूप पाँच भापतियों के अवसर पर स्त्रियों के लिये दूसरा पति कर लेने की व्यवस्था है - वे अपना दूसरा विवाह कर सकती है।' इसी बात को 'अमितगति ' नाम के जैनाचार्य ने अपनी 'धर्मपरीक्षा ' में निम्न वाक्य द्वारा उल्लेखित किया है: पत्थौ प्रवजिते क्लीवें प्रनले पहिले मृते । पंचप्राण नारीहां पतिरम्यो विधीयते ॥ ११-१२ ॥ 'धर्म परीक्षा के इस वाक्य पर से उन लोगों का कितना ही सम्माधान हो जायगा जो भ्रमवश पाराशरस्मृति के उक्त वाक्य का चलत अर्थ करने के लिये फोरा व्याकरण छोकते हैं-- कहते हैं 'पति' शब्द का सप्तमी में ' पत्यौ ' रूप होता है, पती' नहीं। इसलिये यहाँ समासान्त ' अपति ' शब्द का सप्तम्यन्त पद ' अपतौ ' पड़ा 'हुआ है, जिसके ''कार का 'पलिते' के बाद लोप हो गया है, उस पविभिन्न पति का बोधक है, जिसके साथ मज I और
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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