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________________ . [११] किनमा ही पता चल जाता है। जो लोग विवाह विषय पर सम्मति दे देने से ही ब्रह्मचर्य में दक्षेप या छातीचार का बगना बतलाने हैं ये. मालूम नहीं, ऐसी भोगप्रेरणा को लिये हुए मरतील उद्गार निकालने वाल इन मट्टारकमी के माचर्य विषय में क्या कहेंगे और उन्हें ग्रामको की दूसरी प्रतिमा में भी स्थान प्रदान करेंगे या कि नहीं ? अस्तु मे लोग कुछ ही कहें अथवा करें, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि महारकर्मी का यह सब विधि-विधान, जिसे वे 'कामयज्ञ' बतलाते हैं और बिसके अनुष्ठान मे 'संसार समुद्र से पार तारने वाला पुत्र' पैदा होगा एसा लालच दिखलाते है, जैन शिलाधार के बिलकुल विरुद्ध है और जैन साहित्य को कमकित करने वाला है। जान पड़ता है, बट्टारकनी ने उसे देने में प्रायः बागमार्गियों अपना शक्तिकों का अनु करण किया है और उनकी 'यांनिपूजा' 'जसी घृणित शिक्षाओं को जैन समाज में फैलाना चाहा है। अतः प्रापका यह सब प्रयत्न किसी तरह भी प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता । यहां पर एक बान और भी बतला देने की है और वह यह कि ४५ में पथ में जो 'बलं देहीति मंत्रेण' पाठ दिया है उससे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि उसमें जिस मंत्र का उल्लेख किया गया है यह 'बलं देहि' शब्दों से प्रारंभ होना है। परन्तु महारकजी ने उक्त पद्म के अनन्तर जो मंत्र दिया है वह 'बलं देखि' अथवा 'ॐ बलं देहि' जैसे शब्दों से प्रारंभ नहीं हाता, किंतु 'ॐ ह्रीं शरीरस्थायिनो देवता पर्छ तु स्वाहा' इस रूप को लिये हुए है, और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि महारकमी ने उस मंत्र को बदल यथा S काम यक्षमिति प्राहुहियां सर्वदेव च । समते पुत्रं संसाधवतारकम् ॥ ५१
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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