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________________ करने वाले भट्टारकजी ने, उसी अध्याय में, भोग की कुछ विधि भी बत.. लाई है। उसमें, अन्य बातों को छांद कर, आप लिखते हैं 'प्रदीपे मैथुन चरेत् -दीपप्रकाश में मैथुन करना चाहिये और उसकी बाबत यहाँ तक जोर देते हैं कि दीपे नष्टे तु यः सङ्गं करोति मनुजो यदि । यावजन्मदरिद्रत्वं समते नात्र संशय ॥ ३७॥ । अर्थात्-दीपप्रकाश के न होते हुए, अंधेरे में, यदि कोई मनुष्य श्रीप्रसङ्ग करता है तो वह जन्म भर के लिये दरिनी हो जाता है इस में सन्दह नहीं है । इसके सिवाय, आप भोग के समय परस्पर क्रोध, रोष, मर्सना और ताड़ना करने तथा एक दूसरे की उच्छिष्ट (ज्छन ) खाने में कोई दोष नहीं बतलाते है। साथ ही, पान चबान को भोग का आवश्यक अंग ठहराते हैं-भोग के समय दोनों का मुख ताम्बून से पूर्ण होना चाहिये ऐसी व्यवस्था देते हैं. और यहाँ मक लिखते हैं कि वह श्री भोग के लिये त्याज्य है निसके मुख में पान नहीं और इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि महारकजी ने उन श्री-पुरुषों भयवा श्रावक-श्राविकाओं को परस्पर कामसेवन का अधिकारी ही नहीं समझा सन्देह की बात तो पूर रही, यह तो प्रत्यक्ष के भी विरुद्ध मालूम होता है, क्योंकि कितने ही व्यक्ति सज्जा प्रादि के वश होकर । या वैसे ही सोसे से लाग कर अन्धेरे में कम सेवन करते हैं परन्तु वे परिदी नहीं देखे जाते । कितनों ही की घन-सम्पन्नता वो उसके बाद प्रारम्भ होती है। * पाइननं तनुश्चैत्र धच्छिष्ट वाडनं तथा। - कोपो रोषाश्च निर्भस संयोगे न प दोष मा १३८ । ताम्बूलेन मुचं पूर्ण...कृत्वा योगं समाचरेत् ॥ विना वाम्बूलबदनां...संयोगेच परित्यजेद ।।४।।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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