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________________ [१७६] भगवजिनसेन-प्रणीत आदिपुगण के निम्न वाक्य से भी ध्वनित होती है:-- संतानामुनाचेच कामसेवां मिथ्या मजेत् । शक्तिकामध्यपेक्षोऽयक्रमोऽशकवतोऽन्यथा ॥ ३८-१३५ ॥ इससे भहारकजी का धक्त सब कथन जैनधर्म के बिलकुल विरुद्ध है और उसने जैनियों की सारी कर्म फिलॉसॉफी को ही उठा कर ताक में रख दिया है। भला यह कहा का न्याय और सिद्धान्त है जो पुत्र के भोग न करने पर बेचारे मरे जीते पितर भी भूणहत्या के पाप में घसीटे जाते हैं। मालूम होता है यह महारकली के अपने ही मस्तिष्क की उपज है, क्योंकि उन्होंने पहले पत्र में, जो 'पराशर ऋषि का पचन है और 'पराशरस्मृति के चौयं अध्याय में नं०१५ पर दर्ज है तथा 'मिताक्षरा' में भी उद्धृत मिलता है, इतना ही फेरफार किया है.अर्थात्, उसके अन्तिम चरण 'युज्यते नात्र संशयः' को 'पितृभिः सह मज्जति में बदला हैं। दूसरे शब्दों में यों काहिये कि परांशरजी ने पितरों को उस हत्या के पाप में नहीं हुबोया था, परन्तु महारकजी ने उन्हें भी दुबोना उचित समझा है !!!* ऐसा निराधार कपन कदापि किसी माननीय जैनाचार्य का वचन नहीं हो सकता। 'दूसरा पच भी, जिसमें रतुकाल में मोग न करने वाली स्त्री की गति * एक बात और भी नोट किये जाने के योग्य है और वह यह कि हिन्धु ग्रंथों में इस विषय से सम्बन्ध रखने वाले देवल 'श्रादि ऋषियों के कितने ही पचन ऐसे भी पाये जाते हैं जिनमें स्वस्थ सनोपगच्छनि' आदि पदों के द्वारा उस पुरुष को ही प्रणहत्या के पाप का मागी ठहराया है जो खस्य होते हुए भी ऋतुकाल में मोग नहीं करता है। और 'पर्ववज्य तथा पर्वाणि वर्जयेता मांदि 1 पदों के द्वारा ऋतुकाल में भी मोग के लिये पर्व दिनों की छुट्टी
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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