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________________ तथा म्लेच्छों तक को धर्म का उपदेश दिया है, उनके दुख मुख को सुना है, उनका हर तरह से समाधान किया है और उन्हें जैन धर्म में दीक्षित करके सन्मार्ग पर लगाया है। अतः 'ऐसे लोगों से चोचना योग्य नहीं यह सिद्धान्त बिलकुल जैनधर्म की शिक्षा के विरुद्ध है। इसी तरह पर उन लोगों को कभी कुछ देना नहीं और न कमी उनकी कोई चीन लेना' यह सिद्धांत भी दूषित तथा बाधित है और जैनधर्म की शिक्षा से बहिर्भूत है । क्या ऐसे लोगों के भूख-प्यास क्री, बेदना से व्याकुल होते हुए भी उन्हें अन्न, जल न देना और रोग से पीडित होने पर प्रोषध न देना जैनधर्म की दया का कोई अंग छ सकता है ? कदापि नहीं । जैनधर्म तो कुपात्र और अपात्र कहे जाने वालों को भी दया का पात्र मानता है और उन सब के लिये करुणा बुद्धि से- योचित दान की व्यवस्था करता है । जैसाकि पंचाध्यायी के निम्न पाक्यों से भी प्रकट है:: कुपात्रायाऽप्यपात्राय दान देयं यथोचितम् । , पात्रबुद्धया निषिद्ध स्यामिपिद्धं न छपाधिया॥ शेषेभ्यः, जुलिपाखाविपीडितेभ्योऽशुमोदयात् । दीनेभ्योऽभयदानावि दातव्यं करुणार्णवैः॥ - . वह असमर्थ भूख प्यासों के लिये भाहार दान की, व्याधि-पीडितों के लिये औषधि-वितरण की, मज्ञानियों के लिये किया तथा बानोपकरण-प्रदान की और भयास्तों के लिये अमयदान की व्यवस्था परता है। उसकी दृष्टि में पात्र, कुपात्र और अपात्र सभी अपनी अपनी योग्यवानुसार हुन चारों प्रकार के दान के अधिकारी हैं। इससे महारानी का उन लोगों को कुछ भी न देने का उद्गार निकालना कोरी अपनी पचाध्यायीकी छपी हुई प्रतियों में ऽभय' की जगह 'ऽवया' तथा दया' पाठ ग्रंशतं दिये हैं।..
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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