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________________ [ १५e ] नद भाव को लिये हुए है और उसके फलों तथा लाख में असंख्याते सजीवों के मृत कलेवर शामिल रहने से मच्छी खासी अपवित्रता से सिद्ध कर सके है। उन्होंने यह तो स्वीकार किया है कि आगम में वृक्ष पूजा को बुरा तथा लोकसूदता बतलाया है और उसके अनु लार इस पीपल पूजा का खाकमूढता में अन्तर्माद होना चाहिये। परन्तु प्रम्यकार भट्टारकजी ने चूँकि यह लिख दिया है कि ऐसा करमे में मिध्यात्व का दोष नहीं लगता' इससे आपकी बुद्धि चकरा यई है और आप उसमें किसी रहस्य की कल्पना करने में प्रवृत्त दुष है--यह कहने लगे हैं कि "इसमें कुछ घोड़ासा रहस्य है"। लेकिन यह रहस्य क्या है, उसे बहुत कुछ प्रयक्ष करने अथवा इधर उबर की बहुत सी निरर्थक बातें बनाने पर भी आप जो नहीं सके और अन्त में आपको अनिश्चित रूप से यही लिखना पढ़ा- "संभव है कि जिस तरह क्षेत्र को निमित्त लेकर ज्ञान का क्षयोपहम हो जाता है वैसे ही ऐसा करने से भी ज्ञान का क्षयोपशम हो जाय ".."संभव है कि उस वृक्ष के निमित्त से भी आत्मा पर ऐसा असर पड़ आय जिससे उसकी आत्मा में चिक्षता भाजाय ।" इससे सोमीजी की जैवधर्म-विषयक अद्धा का भी कितना ही पता चलनाता है। अस्तु आपकी सबसे बड़ी युक्ति इस विषय में यह मालूम होती है कि जिस तरह वर की इच्छा से गंपादिक नदियों में स्नान करना लोकसूरवा होते हुए भी ऐसे ही विना उस इच्छा के महज़ शरीर की मदि के लिये उनमें स्नान करना लोकमुड़ता नहीं है, उसी तरह - पवीत की विशेष विधि में बोधि (धान) की इच्छा से बोधि (पीप वृक्षकी पूजा करने में मी लोकसूद्रता अथवा मिध्यात्व का पन होना चाहिये। यद्यपि आपके इस युति-विधान में घर की इच्छा दोनों जगह समान है और इस क्रिये उस बोधि पर की इच्छा से
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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