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________________ [१०] अपवित्र हो गये हैं। कुछ दिन तक बनात् अपवित्र ही रहेंगे और इस लिये हमें भगवान् का पूजन न करना चाहिये, बल्कि वे कुछ देर तक सिर्फ इतना ही सोचत रहे कि एक साथ उपस्थित हुए इन कार्यों में से पहले कौनसा कार्य करना चाहिये और अन्त को उन्होंने यही निश्चय किया कि यह सब पुत्रोपाधि भादि शुभ फल धर्म का ही फल है, इस लिये सब से पहिले देवपूजा रूप धर्म कार्य ही करना चाहिये जो श्रेयो- ' नुबन्धी ( कल्याणकारी ) तथा महाफल का दाता है | और तदनुसार ही उन्होंने, सूतकावस्था में, पहले भगवान का पूजन किया । भरतजी यह भी जानते थे कि उनके भगवान् वीतराग हैं, परम पवित्र और पतितपावन है। यदि कोई, शरीर से अपवित्र मनुष्य उनकी उपासना करता है तो वे उससे नाखुश (अप्रसन्न ) नहीं होते और न उसके शरीर की छाया पड़ माने अथवा वायु लग जाने से अपवित्र ही हो जाते हैं, बल्कि वह मनुष्य ही उनके पवित्र गुणों की स्मृति के योग से स्वयं पवित्र हो जाता है । इससे भरतनी को अपनी सूतकापस्या की कुछ चिंता भी नहीं थी। मालूम होता है ऐसे ही कुछ कारणों से जैन धर्म में सूतकाचरण को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया । उसका प्रावकों की न ५३ क्रियाओं में नाम तक भी नहीं है जिनका श्रादिपुराण में विस्तार के साथ वर्णन किया गया है और जिन्हें 'सम्यक् क्रियाएँ' लिखा है, * देखो एक आदिपुराण का २४ वा पर्व । • नित्य की 'देवपूजा' में भी ऐसा ही माव व्यक किया गया है और उस अपवित्र मनुष्य को तब बाधाम्यन्तर दोनों प्रकार से पवित्र माना है। यथा- अपवित्रा पवित्रों का सर्वावस्थांगतोऽपि वा। या स्मरेत्परमात्मान, पायाभ्यन्तरे अधिक।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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