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________________ ' [१] धरण बनाया है और उसकी जगह पर 'पसहपापण्डपापिनाम्'' नाम का घर रख दिया है। इसी साह पर और भी कितने ही कपन अषका विधि-विधान ऐसे पाये जाते है, जो स्तक-मर्यादा की निसार विषमतादि-विषयक बिडम्बनाओं को चिये हुए हैं और जिन से सूतक की मौति निरापद् नहीं सती जैसे विवाहिता पुत्री के पिता के घर पर मर जाने अपना उसके वा बच्चा पैदा होने पर सिर्फ तीन दिन के सूतक की व्यवस्थ का दिया जाना ! इत्यादि । मोर ये सब कथन मी अधिकांश में हिन्दू धर्म से किये गये अपना उसकी नीति का अनुसरण करके लिखे गये हैं। पड़ों पर मैं अपने पाठकों में सिर्फ इतना और वतचा देना चाहता हूँ कि भारकसी ने उस हालत में भी सनक अपया किसी प्रकार के अशौच को न मानने की व्यवस्था की है जब कि यह (पूजन हवनादिक) Aषा महान्यासादि कार्यों का प्रारम्भ कर दिया गया हो और पांच में कोई सूतक श्रापरे अथवा सूतक मानने से अपने बहुत से इम्प की हानि का प्रसंग उपस्थित हो। ऐसे सब अवसरों पर कौल हदि कर की जाती है भयवा मान डी जाती है, ऐसा मारकमी का कहना है । यथाः समारपेषु भायमान्यायाविकर्मा पाहण्यविमाणे तु सपा विधीयत ॥ १४ ॥ परन्तु विवाह-प्रभास के अवसर पर आप अपने इस व्यवस्थानियम को मुला गये हैं। वहाँ विवाहमा का होम मरम्म माने पर अब यह मालूम होता है कि क्या रखरखता है तो थाप चीन दिन के लिये विवाह को से मुलतवी (स्थगित कर देते हैं और चौप दिन उसी पनि में फिर से होम करके कन्यादानादि ष कार्यों को
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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