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________________ [१३३] उपाय की विलक्षणता अथवा निःसारता आदि के विषय में कुछ विशेष, कहने की जरूरत नहीं है, सहदप पाठक सहन ही में अपने अनुभव, से उसे जान सकते हैं अथवा उसकी जाँच कर सकते हैं। मैं यहाँ पर सिर्फ इतना ही पतला देना चाहता हूँ कि महारानी ने जो यह प्रति, पादन किया है कि 'एक जनेऊ पहन कर कोई भी धर्मकार्य। सिद्ध नहीं हो सकता-उसका करनाही निष्फल होता है। से दरिद्र के भाग जाने अथवा पास न फटकने का विधान ! यथा:(१) आयुष्यं प्राङ्मुखा मुंके.. .श्रीकामा पश्चिमे धियं प्रत्यमुखो] मुंके ॥६-१६३ ॥ (२) एक पत्र तु यो मुंह विमले [गृहस्था] कांस्यमाअने। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुः प्रज्ञा यशोषतम् ॥६-१६७ ॥ (३) आयुष्ये [६] प्रामुखो दीपो धनायोदमुजोमतः [धनदः स्यातुदरमुखः]। प्रत्यङ्मुखोऽपिदुःखाय[दुमदोऽसौहानये निदो दक्षिणामुः। रवेरस्त समारम्प यावत्सूर्योदयो भवेत् । यस्य तिगृहे वीपस्तस्य नास्ति परिदता। -अन्याय, ७ौं। और ये सब कपन हिन्दू धर्म के प्रन्या से लिये गये है-हिन्दुओं के (१) मनु (२) ग्यास तथा (३) मरीचि नामक ऋषियों के क्रमशः वचन है, जो प्रायः ज्यों के त्यो अथवा कहीं कहीं साधारण से परिवर्तन के साथ उठा कर रपये गये हैं। मान्दिफस्चापति में भी ये पाय, प्रैकिटों में दिये हुए पाठभेद के साथ ही ऋषियों के 'नाम से उल्लेखित मिलते हैं। जैनधर्म की शिक्षा अथवा उसके सत्य. मान से इन कथनों का कोई खास सम्बन्ध नहीं है।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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