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________________ [१२] 4 को बुरा अपना इस प्रकार के दुष्परिक्षामों का कारण नहीं बतलाया है बल्कि 'उत्तम' तथा 'प्रशस्त' 'मासन लिखा है। और इसलिये भासन की वक फल-कल्पना अधिकांश में भट्टारकजी की प्रायः अपनी ही कल्पना जान पड़ती है, जो निराधार तथा निःसार होने से कदापि मान्य किये जाने के योग्य नहीं । और भी कुछ भासनों का फल भहारकली की निजी कल्पना द्वारा प्रसूत हुया जान पड़ता है, जिसके विचार को यहाँ छोड़ा जाता है। जूठन न छोड़ने का भयंकर परिणाम । -- (१४) बहुत से लोग, जिनमें त्यागी और ब्रह्मचारी भी शामिल है, यह समझे हुए हैं कि जूठन नहीं छोड़ना चाहिये - फुसे को भी अपना झूठा भोजन नहीं देना चाहिये और इसलिये वे कभी जूठन नहीं छोदते। उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि महारकली ने ऐसे लोगों के लिये जो खा पीकर भरवन खाली छोड़ देते हैं उनमें कुछ नूठा भोजन तथा पानी रहने नहीं देते --- यह व्यवस्था दी है कि ' वे जन्म जन्म में भूख प्यास से पीड़ित होंगे; जैसा कि उनके निक्ष व्यवस्था पथ से प्रकट है— ----- भुक्त्वा पीत्वा तु वत्पावं किं व्यजति यो नरा । सुत्पिपासात मखन्मनि जन्मनि ॥६-२२५ ॥ मालूम नहीं महारकबी ने सूठन म छोने का यह भयंकर परिणाम कहाँ से निकाशा है | अथवा किस आधार पर उसके लिये ऐसी दवडव्यवस्था की घोषणा की है !! जैन सिद्धान्तों से उनकी इस व्यवस्था का कोई समर्थन नहीं होता कोई भी ऐसा व्यापक नियम नहीं पाया जाता बो ऐसे निरपराधियों को जन्म जन्म में भूख प्यास की वेदना से पीक्षित रखने के लिये समर्थ हो सके। हाँ, हिन्दू धर्म की ऐसी कुछ कल्पना चर है और उक्त पण भी प्रायः हिन्दू धर्म की ही सम्पति जान पड़ता है। वह साधारण से पाठ -मेद के साथ उनके स्मृतिरत्नाकर में उद्धृत मिलता है। वहीं इस पथ का पूर्वार्ध 'भुक्त्वा पीत्वा च यो मर्त्यः शून्यं
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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