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________________ [११३]. और कैसे यह कहा जा सकता है कि जो संध्यासमय संध्योपासन नहीं करता वह जीवित शुद्ध होता है । मालूम होता है यह सब कुछ लिखते हुए मधरकनी जैनत्व को अथवा जैन धर्म के स्वरूप को बिजकल ही मूल गये हैं और उन्होंने बहुधा आँख मीच कर हिन्दू धर्म का अनुसरण किया है। हिन्दुओं के यहाँ शब्दों को संध्योपासन का अधिकार नहींवे बेचारे वेदमन्त्रों का उच्चारण तक नहीं कर सकते इसलिये उनके यहाँ ऐसे वाक्य बन सकते है। यह वाश्य मी उन्हीं के वाक्यों पर से बनाया गया भयमा उन्हीं के ग्रंथों पर से उठा कर रखा गया है । इस वाक्य से मिलता जुलता 'मरीचि ऋषि का एक वाक्य इस प्रकार है: संध्या येन न विपाता संध्या येनानुपासिता। ।' जीवमानो भवच्छता मृत श्वा चामिजायते । -श्रान्तिकसूत्रापतिः । इस पद्य का उत्तरार्ध और महारकली के पब का उत्तरार्ध दोनों एक हैं और यही उत्तरार्ध नैनदृष्टि से भापचि के योग्य है। इसमें मर कर कुत्ता होने का जो विधान है वह भी जैन सिद्धान्तों के विरुद्ध है। संध्या के इस प्रकरण में और भी कितने ही पथ ऐसे हैं जो हिन्दू धर्म के प्रयों से ज्यों के त्यों उठा कर अथवा कुछ बदल कर रक्खे गये हैं। जैसे 'उत्तमा तारकोपेतान्होरांनेश्व यासन्धि' और राष्ट्रभंगे पंचोमे' आदि पछ । और इस तरह पर बहुधा हिन्दू धर्म की भौंधी सीधी नकश की गई है। (८) ग्यारहवें अध्याय में 'शवत्व का एक और भी विचित्र योग किया गया है और वह यह कि 'जो कन्या विवाह संस्कार से पहले पिता के घर पर ही रजस्वला हो जाय उसे 'शुदा (कृपली)' बत-, लाया गया है और उससे बो विवाह करे उसे शादापति । वृपवीपति) की संज्ञा दी गई है। यथा
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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