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________________ [ १०३] निःसार वाक्य द्वारा अपने कथन में विरोध उपस्थित न करते । श्रस्तु; इसी प्रकरण में मङ्कारकजी ने दो पद निम्न प्रकार से भी दिये हैं 1 महा [ह] घट युवा [डा ] तालहितात्रतक्य [का] खर्जूरी नालिकेर उतैते दसराजकाः ॥ ६६ ॥ राजसमोपेतो [तं] वः कुर्याद्दन्तधावनम् । निर्दयः पापभागी स्थादनन्त कायिकं त्यजेत् ॥ ६७ ॥ इनमें से पहले पद्य में सात वृच्छों के नाम दिये हैं, मिनकी 'तूराज' संज्ञा है और जिनमें मद तथा खजूर भी शामिल हैं। और दूसरे पद्म में यह बतलाते हुए कि 'तुयाराज की जो दौतन करता है वह निर्दयी तथा पाप का भागी होता है,' परिणाम रूप से यह उपदेश भी दिया है कि ( यतः) मनन्तकायिक को छोड़ देना चाहिये। इस तरह पर महारनी ने इन वृक्षों की दाँतन को अनन्तकायिक बतलाया है और शायद इसीलिये ऐसी दाँतन करने वाले को निर्दयी तथा पाप का भागी ठहराया हो । सोनीजी ने भी अनुवाद में लिख दिया है- "क्योंकि इनकी दतौन के मीतर अनन्त जीव रहते हैं ।" परंतु जैनसिद्धान्त में 'अनंतकायिक' अथवा 'साधारण' वनस्पति का जो स्वरूप दिया हैजो पहिचान बताई है-उससे उक्त बड़ तथा खजूर आदि की दाँतन का तकायिक होना खाखिमी नहीं आता । और न किसी माननीय जैनाचार्य ने इन सब वृक्षों की दाँतन में अनंत जीवों का होना ही बतलाया है। प्राचीन जैनशालों में तो 'सप्त तृणराब' का नाम भी सुनाई नहीं पड़ता । भट्टारकजी ने उनका यह कथन हिन्दू-धर्म के ग्रंथों से उठा कर रक्खा है । उक्त पथों में से पहला पद और दूसरे पथ का पूर्वाध दोनों 'गोभिल' ऋषि के वचन हैं और वे ब्रेकिटों में दिये हुए पाठभेद के साथ 'रसूतिरत्नाकर' में भी 'गांमिल' के नाम से उखित मिलते है । गोसिस' ने दूसरे पत्र का उत्तरार्ध 'नरखाण्डाल I
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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