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________________ [१०१] ही होता है-देवताओं की क्या व्यवस्था बनेगी, यह कुछ समझ में नहीं माता!! परंतु सगक में कुछ मानो या न माओ, कोई व्यवस्था बनो या न बनो, बड़ी मुशकिल का सामना करना पड़ा या छोटी मुशकिल का और पुरस के बाक पर उन देवादियों के उपरिषत होने का भी कोई कारण हो या न हो, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि जैनधर्म के साथ इस सब कथन का कुछ भी सम्बंध नहीं है-उसकी कोई संगति ठीक नहीं बैठती । जैनधर्म में देवो, पितरों तथा ऋपियों का नो स्वरूप दिया है अपवा नीयों की गति-खिति आदि का जो निरूपण किया है उसे देखते हुए मधारकजी का उक्त कथन उसके विलकुल विश्व बान पड़ता है और उस अतत्व श्रद्धान को पुष्ट करता है जिसका नाम मिथ्यात्व है। मालूम नहीं उन्होंने एक जैनी के रूप में उसे किस तरह अपनाया है। वास्तव में यह सब कयन हिन्दू-धर्म का कथन है। कलेक भी हिन्दुओं के प्रयोगपारिनात' पंप का ओक है और वह 'आन्हिकसूत्रावति' में भी, किटों में दिये हुए पाठभेद के साप, प्रयोगपारिनाव से उद्धृत पाया जाता है । पाठभेद में पितरकी जगह व्यन्तरा।' पद का नो विशेष परिवर्तन नजर आता है वह अधिकांश में लेखको की सीमा का ही एक नमूना जान पड़ता है। अन्यथा, उसका कुछ मी महत्व नहीं है, और सर्व देवों में भ्यन्तर भी शामिल हैं। दन्तधावन करने वाला पापी। (२) निवाचार के दूसरे अध्याय में, दन्तथापन कर दर्शन करते हुए, एक पथ निम्न प्रकार से दिया है सहमांशानुदिते या कुर्याइन्तधावनम् । सपापी मरण याति वर्षजीपश्यातिगः ॥७॥ इसमें लिखा है कि सूर्योदय से पहले जो मनुष्य दन्तधावन करता है वह पापी है, सर्व नीषों के प्रति निर्दयी है और (जन्दी ) मर जाती
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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