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________________ , [८] के बहुत कुछ विरुद्ध हैं। इससे अधिक धूर्तता, उत्सूत्रवादिता और टगविद्या दूसरी और क्या हो सकती है ! इतने पर भी जो लोग, साम्प्रदायिक भोइवश, महारकजी को ऊँचे चरित्र का व्यक्ति रागगते हैं, संयम के कुछ उपदेशों का इधर उधर से संग्रह कर देने गान से उन्हें 'अद्वितीय संयमी ' प्रतिपादन करते हैं, उनके इस विचार की दीवार को आदिपुराण के ऊपर उसके आधारपर - खड़ी हुई बतलाते है और 'इसमें कोई भी बात ऐसी नहीं जो किसी श्राप ग्रंथ अथवा जैनागम के विरुद्ध हो' ऐसा कहने तक का दुःसाहस करते हैं, उन लोगों की स्थिति, निःसंदेह बड़ी ही शोचनीय तथा करुणाजनक है। मालूम होता है वे गोले हैं या दुराग्रही हैं, उनका अध्ययन स्वरूप तथा अनुभव है, पर साहित्य को उन्होंने नहीं देखा और न तुलनाताक पद्धति से कभी इस ग्रंथ का अध्ययन ही किया है । अस्तु । • इस ग्रंथ में यादिपुराण के विरुद्ध और भी कितनी ही बातें हैं जिन्हें लेख बढ़ जाने के भय से यहीं छोड़ा जाता है। (२) श्रादिपुराण के विरुद्ध अथवा आदिपुराण से विरोध रखने वाले कथनों का दिग्दर्शन कराने के बाद, अत्र में एक दूसरे प्रंप को धौर लेता हूँ जिसके सम्बन्ध में भी महारकजी का प्रतिज्ञाविरोध पाया जाता है और वह ग्रंथ है ' ज्ञानार्थच ', जो श्री शुभचन्द्राचार्य का घनाया हुया है। इसी ग्रंथ के अनुसार ध्यान का कथन करने की एक प्रतिज्ञा भट्टारकजी ने, ग्रंथ के पहले ही 'सामायिक' अध्याय में, तिन प्रकार से दी है— ध्यti arari पनि विदुषां नाममार्से रौद्रसधर्म्यशुक्ल चरमं दुःखाविसौख्यप्रदम् । पिराह्नस्थं च पदस्थरूपरहितं कपस्थनामा परं । भिचतुर्वियजा भेदाः परे सन्ति वै ॥२८).
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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