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________________ (८४) पद्यभागमें, व्यभिचारका दंड-विधान करते हुए, एक स्थान पर ये चार पद्य दिये हैं: "माता मातानुजा ज्येष्ठा लिंगिनी भगिनी स्नुषा। चाण्डाली भ्रातृपत्नी च मातुली गोत्रजाथवा ॥ २८ ॥ सकृद्भान्त्याथ दर्पाद्वा सेविता दुर्जनेरिता । प्रायश्चित्तोपवासाः स्युस्त्रिंशत्तच्छीर्षमुंडनम् ॥३९॥ तीर्थयात्राश्च पंचैव महाभिषेकपूर्वकम् ॥ कृत्वा नित्यार्चनायाश्च क्षेत्रं घंटों वितीर्य च ॥ ३०॥ भोजयेन्मुनिमुख्यानां संघ द्विशतसंमित । वखाभरणताम्बूलभोजनः श्रावकान् भजेत् ॥ ३१ ॥ इन पयोंमें लिखा है कि यदि एक बार भ्रमसे अथवा जान बूझकर अपनी माता, माताकी छोटी बड़ी बहिन, लिंगिनी ( आर्यिकादिक ), बहिन, पुत्रवधू, चांडाली, भाईकी स्त्री, मामी अथवा अपने गोत्रकी किसी दूसरी स्त्रीका सेवन हो जाय तो उसके प्रायश्चित्तमें तीस उपवास करने चाहिए, उस स्त्रीका सिर मुंडना चाहिए, महाभिषेक पूर्वक पाँच तीर्थयात्रायें करनी चाहिए, नित्यपूजनके लिए भूमि तथा घंटा वितरण करना चाहिए। और यह सब कर चुकनेके बाद, प्रधान मुनियोंके दोसे संख्या प्रमाण संघको भोजन खिलाना चाहिए। साथ ही, श्रावकोंको वस्त्राभूषण, ताम्बूल और भोजनसे संतुष्ट करना चाहिए । इस दंडविधानमें, अन्य.बातोंको छोड़कर, दोसो मुनियोंको भोजन करानेकी बात बड़ी ही विलक्षण है । जैनियोंके चरणानुयोग तथा प्राचीन यत्याचार-विषयक ग्रंथोंसे इसका जरा भी मेल नहीं है । जिन जैन मुनियोंके विषयमें लिखा है कि वे उद्गमादिक झ्यालीस दोषों तथा ३२ अंतराप्योंको टालकर शुद्ध आहार लेते हैं, किसीका निमंत्रण स्वीकार नहीं करते और यह मालूम हो जाने पर, कि भोजन उनके उद्देश्यसे तैयार किया
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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