SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७३) दिग्विरति, देशविरति तथा अनर्थदंडविरति नामके व्रतोंको और तैसे ही अन्य नित्यवतोंको क्रमशः यथाशक्ति धारण करके और अर्हतादिककोनमस्कार करके मुनिनाथने गृहस्थोंके चारित्रका वर्णन किया है । उसको सुनकर उन्हें सुनावे, रक्षा करे, यतिकुलको नमस्कार करके फिर दर्शन होवे, इस प्रकार । ' इस कथनकी अन्य बातोंको छोड़कर, मुनिनाथने उपासकाचारमें कहे हुए श्रावकोंके व्रतोंको धारण किया, और वह भी पूरा नहीं, यथाशक्ति! तब कहीं गृहस्थोंके चारित्रका वर्णन किया, यह बात बहुत सटकती है और कुछ बनती हुई मालूम न होकर असमंजस प्रतीत होती है। जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे मुनीश्वरोंको श्रावकोंके व्रतोंके धारण करनेकी कोई जरूरत नहीं है । वे अपने महावतोंको पालन करते हुए गृहस्थोंको उनके धर्मका सब कुछ उपदेश दे सकते हैं । नहीं मालूम मंयकर्ताने कहाँ कहाँके पदोंको आपसमें जोड़कर यहाँ पर यह असमंजसता उत्पन्न की है । परन्तु इसे छोड़िए और एक नया दृश्य देखिए । वह यह है कि, इस अध्यायमें अनेक स्थानों पर कीड़ी, बीड़ा, ताम्बूल बीड़ा, खटीक, चमार, मोची, ढोहर, कोली, कंदी, जिमन, खाती, सोनार, ठठेरा, छीपी,, तेली, नाई, डोंब, बुरुड और मनियार इत्यादि बहुतसे ऐसे शब्दोंका प्रयोग पाया जाता है जिनका हिन्दी आदि दूसरी भाषाओंके साथ सम्बंध है। संस्कृत ग्रंथमें संस्कृत वाक्योंके साथ इस प्रकारके शब्दोंका प्रयोग बहुत ही खटकता है और इनकी वजहसे यह सारा अध्याय बड़ा ही विलक्षण और बेढंगा मालूम होता है । नमूनेके तौर पर ऐसे कुछ वाक्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं: १-" चाडालकलालचमारमोचीडोहरयोगिकोलीकंदीनां गृहे जिमन-इतर समाचार करोति तस्य प्रायश्चित्त...मोकलाभिषेकाः विंशति...वीड़ा १००।" २-"अष्टादशप्रकारजातिमध्ये सालिमालीतलीतवीसूत्रधार-खातीसोनार-उठेरामकारपरोथटलीपीनाई-वधुरुधगणीमनी यारचित्रकार इत्यादयः प्रकारा एतेषां'
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy