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________________ (६८) इससे स्पष्ट मालूम होता है कि इन अध्यायोंका यह उत्पातविषयक . कथन भी भिन्न भिन्न स्थानोंसे उठाकर रक्खा गया है और चूँकि इन दोनों अध्यायोंमें बहुतसा कथन एक दूसरेके विरुद्ध भी पाया जाता'. है, जिसका दिग्दर्शन अगले लेसमें कराया जायगा, इसलिए ये दोनों अध्याय किसी एक व्यक्तिक बनाये हुए भी नहीं हैं । ग्रंथकाने उन्हें जहाँ तहाँसे उठाकर बिना सोचे समझे यहाँ जोड़ दिया है। (८) यद्यपि इससे पहले लेतमें और इस लेखमें भी ऊपर, प्रसंगानुसार, असम्बद्ध कथनोंका बहुत कुछ उल्लेख किया जा चुका है तो मी. यहाँ पर कुछ थोड़ेसे असम्बद्ध कथनोंको और दिखलाया जाता है, जिससे . पाठकों पर ग्रंथका वेढंगापन और भी अधिकताके साथ स्पष्ट हो जायः(क) गणेशादिमुनीन् सर्वान् नमति शिरसा सदा । निर्वाणक्षेत्रपूजादीन मुंजतीन्द्राश्च भो नृप ॥३६-५१॥ सरेवादिकं चान्यतिलकालकसंभवं । इत्येवं व्यंजनानां च लक्षणं तत्वतो नृप ॥३८-१९॥ मनुष्येषु भवेचिहं नतोरणचामरं । सिंहासनादिमत्त्यान्तराज्यविहं भवेनृप ॥ ३९-६ ॥ विदिग्गतश्चोर्ध्वगतोऽधोगतो दीप एव च । कदाचिद्भवति प्रायो शेयो राजन् शुभोऽशुभः ॥ ३-८-१८॥ ये चारों पद्य क्रमशः १ दिव्येन्द्रसंपदा, २ व्यंजन, ३ चिह्न और ४ दीप नामके चार अलग अलग अध्यायोंके पद्य हैं । इनमें 'नृप' और 'राजन् ' शब्दोंद्वारा किसी राजाने सम्बोधन करके कथन किया गया है; परन्तु पहले यह बतलाया जा चुका है कि इस संपूर्ण ग्रंथमें कहीं भी किसी राजाका कोई प्रकरण या प्रसंग नहीं है और न किसी राजाके प्रश्न पर इस ग्रंथकी रचना की गई है, जिसको सम्बोधन करके ये सब :
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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