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________________ .. यह पद्य वही है जिसे विट्ठल नारायण कृत 'आहिक ' में 'अंगिरा। ऋषिका वचन लिखा है । सिर्फ 'समाहितः ' के स्थानमें यहाँ पर 'व्रतान्वितः ' का परिवर्तन किया गया है। मनुस्मृतिके आठवें अध्यायमें, लोकव्यवहारके लिए कुछ संज्ञाओंका वर्णन करते हुए, लिखा है कि झरोखेके भीतर सूर्यकी किरणोंके प्रविष्ट होनेपर जो सूक्ष्म रजःकण दिखलाई देते हैं उसको सरेणु कहते हैं। आठ बसरेणुओंकी एक लीस, तीन लीखोंका एक राजसर्षप, तीन राजसर्षपोंका एक गौरसर्पप और छह गौरसर्षपोंका एक मध्यम यव (जौ) होता है । यथाः-- जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्म दृश्यते रजः। प्रथमं तत्प्रमाणानां त्ररेणुं प्रचक्षते ॥ १३२ ॥ जसरेणवोऽष्टौ विज्ञेया लिका परिमाणतः । ता राजसर्पपस्तिस्रस्ते त्रयो गौरसर्पपाः ॥ १३३ ।। सर्पपाः पट् यवो मध्यः..................। भद्रबाहुसंहिताके कर्ताने मनुस्मृतिके इस कथनमें त्रसरेणुसे परमाणुका अभिप्राय समझकर तथा राजसपंप और गौरसर्षपके भेदोंको उड़ाकर जो कथन किया है वह इस प्रकार है:- . + यस्य भागो पुनर्नस्यात्परमाणुः स उच्यते ।। तेऽष्टौ लिक्षा त्रयस्तच्च सर्षपस्ते यवो हि षट् ॥३-२५२॥ . अर्थात्-जिसका विभाग न हो सके उसको परमाणु कहते हैं । आठ परमाणुओंकी एक लीस, तीन लीखोंका एक सर्षप (सरसोंका दाना) और , +इससे पहले श्लोकमें नसरेवादिके भेदसे ही मानसंज्ञाओंके कथनकी प्रतिज्ञा, की गई है जिससे मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने त्रसरेणुको परमाणु समझा है। यथा:-संसारव्यवहारार्थ मानसंज्ञा प्रकथ्यते । हेमरत्लादिवस्तूनां त्रसरेण्वादिभेदतः ॥ २५१ ॥
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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