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________________ __ . (५०) उत्तर इन सब बातोंका कुछ नहीं हो सकता । इसलिए ग्रंथकर्ताका यह सब परिवर्तन निरा भूलभरा और मूर्खताको द्योतक है। ७-धीवरशाकुनिकानां सप्तमभागे भयं भवति दीप्ते। . भोजनविघातउत्तो निधनभयं च तत्परतः॥२-३३॥ इस पबमें सिर्फ 'निर्यन्थभयं के स्थानमें 'निधनभयं बनाया गया है और इसका अभिप्राय शायद ऐसा मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताको ‘निर्यथ ' शब्द खटका है। उसने इसका अर्थ दिगम्बर मुनि या जैनसाधु समझा है और जैनसाधुओंसे किसीको भय नहीं होता, इस लिए उसके स्थानमें 'निधन ' शब्द बनाया गया है। परन्तु वास्तवमें निथका अर्थ दिगम्बर मुनि या जैनसाधु ही नहीं है बल्कि निर्धन' और 'मूर्ख' भी उसका अर्थ है - और यहाँ पर वह ऐसे ही अर्थमें व्यवहृत हुआ है। अस्तु ग्रंथकर्ताका इस परिवर्तनसे कुछ ही अभिप्राय हो, परन्तु छंदकी दृष्टि से उसका यह परिवर्तन ठीक नहीं हुआ। ऐसा करनेसे इस आयर्या छंदके चौथे चरणमें दो मात्रायें कम हो गई हैं-१५ के स्थानमें १३ ही मात्रायें रह गई हैं। ___ यहाँ पाठकोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वराहमिहिर आचार्यने तो अपना यह संपूर्ण शकुनसम्बंधी वर्णन अनेक वैदिक ऋषियों तथा विद्वानोंके आधारपर-अनेक ग्रंथोंका आशय लेकर-लिखा है और उसकी सूचना उक्त वर्णनके शुरूमें लगा दी है। परन्तु भद्रबाहुसंहिताके कर्ता इतने कृतज्ञ थे कि उन्होंने जिस विद्वानके शब्दोंकी इतनी अधिक नकल कर डाली है उसका आभार तक नहीं माना । प्रत्युत अध्यायके शुरूमें मंगलाचरणके बाद यह लिखकर कि ' श्रेणिकके प्रश्नानुसार गौतमने शुभ अशुभ शकुनका जो कुछ कथन किया है वह ( यहाँ मेरे द्वारा) __ + यथा:-निग्रंथः क्षपणेऽधने वालिशेऽपि । ' इति श्रीधरसेनः ॥ 'निथो निस्वमूर्खयोः श्रमणे च।' इति हेमचन्द्रः॥
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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