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________________ (४०) हजार छै । मुनिपरंपरा सू विमुख छै । तीसू न देणी। सूरि भी नहीं देवै । एक वार धर्मभूषण स्वामी दो चार स्थल.मांगे दिये सो फेरि पुस्तक नहीं आई। तदि वामदेवजी फेर शुद्धकरि लिषी तयार करी । तीसू नहीं देगी।" ऊपरकी इस प्रशस्तिसे, जो कि ग्रंथ बननेके अधिक समय बादकी नहीं है, साफ ध्वनित होता है कि यह ग्रंथ गोपाचल ( ग्वालियर ) के भट्टारक धर्मभूषणजीकी कृपाका एक मात्र फल है। वही उस समय इस ग्रंथके सर्व सत्वाधिकारी थे। उन्होंने वामदेव सरीखे अपने किसी. कृपापात्र या आत्मीयजनके द्वारा इसे तय्यार कराया है, अथवा उसकी सहायतासे स्वयं तय्यार किया है । तय्यार हो जानेपर जब इस ग्रंथके दो चार अध्याय किसीको पढ़ने के लिए दिये गये और वे किसी कारणसे वापिस नहीं मिलसके तब वामदेवजीको फिरसे दुबारा उनके 'लिए परिश्रम करना पड़ा । जिसके लिए प्रशस्तिका यह वाक्य तदि वामदेवजी फेर शुद्ध करि लिषी तयार करी- खास तौरसे ध्यान दिये जानेके योग्य है और इस बातको सूचित करता है कि उक्त अध्यायोंको • पहले भी वामदेवने ही तय्यार किया था। मालूम होता है कि . लेखक ज्ञानभूषणजी धर्मभूषण भट्टारकके परिचित व्यक्तियोंमें थे और आश्चर्य नहीं कि वे उनके शिष्योंमें भी हों । उनके द्वारा खास तौरसे यह प्रति लिखाई गई है। उन्होंने प्रशस्तिमें अपने स्वामी धर्मभूषणकी ग्रंथं न देने संबंधी आज्ञाका-जो संभवतः उक्त अध्यायोंके वापिस न आने पर दी गई होगी-उल्लेख करते हुए भोलेपनसे उसके कारणका भी उल्लेख कर दिया है, जिसकी वजहसे ग्रंथकर्ताके विषयमें 'उपर्युक्त विचारोंको स्थिर करनेका अवसर मिला है और इसी लिए पाठकोंको उनके इस भोलेपनका आभारा होना चाहिए। ता०२९-९-६११
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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