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________________ (३०) देखनेसे मालूम हुआ कि ग्रंथ प्राकृत भाषामें है, उसमें २६० (२५८+२) गाथायें हैं और उसकी वह प्रति एक पुरानी और जीर्ण-शीर्ण है । बढ़ी सावधानीसे संहिताके साथ उसका मिलान किया गया और मिलानसे निश्चय हुआ कि, ऊपरके प्रतिज्ञावाक्यमें जिन' दुर्ग' नामके आचार्यका उल्लेख है वे निःसन्देह ये ही 'दुर्गदेव' हैं और इनके इसी' रिष्टसमुच्चय' शास्त्रके आधार पर संहिताके इस प्रकरणकी प्रधानतासे रचना हुई है। वास्तवमें इस शास्त्रकी १०० से भी अधिक गाथाओंका आशय और अनुवाद इस संहितामें पाया जाता है। अनुवादमें बहुधा · मूलके शब्दोंका अनुकरण है और इस लिए अनेक स्थानों पर, जहाँ छंद भी एक है, वह मूलका छायामात्र हो गया है । नमूनेके तौर पर यहाँ दोनों ग्रंथोंसे कुछ पद्य उद्धृत किये जाते हैं जिससे इस विषयका पाठकोंको अच्छा अनुभव हो जाय: १-करचरणेसु अ तोय, दिनं परिसुसइ जस्स निमंत। सो जीवइ दियह तयं, इह कहि पुत्रसूरीहिं ॥ ३१ ॥ (रिष्टस०) पाणिपादोपरि क्षिप्तं तोयं शीघ्रं विशुष्यति । दिनत्रयं च तस्यायुः कथितं पूर्वसूरिभिः ॥ १८ ॥ (भद्र० संहिता) २-वीआए ससिर्विवं, नियइ तिसिंगं च सिंगपरिहीणं। उवरम्मि धूमछाय, अह खंडं सो न जीवेइ ॥६५॥ (रि०सं०) द्वितीयायाः शशिविवं, पश्येत्रिशृंगं च शृंगपरिहीनं । उपरि सधूमच्छाय, खंडं वा तस्य गतमायुः ॥ ४३ ॥ (संहिता) ३-अहव मयंकविहीणं, मलिणं चंदं च पुरिससारित्यं । सो जीयइ मासमेगं, इय दिहं पुव्वसूरीहिं ।। ६६ ॥ (रि० सं) अथवा मृगांकहीनं, मलिन चंद्रं च पुरुषसादृश्यं । प्राणी पश्यति नून, मासादूर्वं भवान्तरं याति ॥ ४४ ॥(संहि.) ४.इय मंतियसव्वंगो, मंती जोएउ तत्थ वर छायं । सुहादियहे पुव्वण्हे, जलहरपवणेण परिहोणे ॥५१॥ (रि.)
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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