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________________ ..(२८) बल्कि संभवतः सारा अध्याय किसी ऐसे पुराणादिक ग्रंथसे उठाकर यहाँ रक्खा गया है जो विक्रम संवत् ५३० से बहुत पीछेका बना हुआ था। ग्रंथकर्ताने ऊपरके वर्णनका भद्रबाहुके साथ सम्बंध मिलाने. और। उसे भद्रबाहुकी भविष्यवाणी प्रगट करनेके लिए उसमें भविष्यत्कालकी. क्रियाओंका परिवर्तन किया है। परंतु मालूम होता है कि वह सब क्रिया ओंको यथेष्ट रीतिसे बदल नहीं सका। इसीसे इस वर्णनमें इस प्रकारकी विलक्षणता और असम्बद्धताका प्रादुर्भाव हुआ है। मेरा यह उपर्युक्त खयाल और भी दृढ़ताको प्राप्त होता है जब कि इस अध्यायके अन्तमें यह श्लोक देखनको मिलता है: इत्येतत्कालचक्रं च केवलं भ्रमणान्वितं । .... षड्भेदं संपरिज्ञायशिवं साधयत्तं नृप ॥ १२४ ॥ . . . - इस श्लोकमें लिखा है कि-हे राजन इस प्रकारसे केवल भ्रमणको लिये हुए इस छह भेदोंवाले कालचक्रको भले प्रकार जानकर तुम अपना कल्याण साधन करो। यहाँ पर पाठकोंको यह बतला देना जरूरी है कि इस ग्रंथमें इससे पहले किसी राजाका कोई संबंध नहीं है और न किसी राजाके प्रश्नपर इस ग्रंथकी रचना की गई है, जिसको सम्बोधन करके न्यहाँपर यह वाक्य कहा जाता । इसलिए यह वाक्य यहाँ पर बिलकुल असम्बद्ध है और इस बातको सूचित करता है कि यह प्रकरण किसी ऐसे पुराणादिक ग्रंथसे उठाकर रक्खा गया है जो वि० सं०५३० के बादका बना हुआ है और जिसमें किसी राजाको लक्ष्य करके अथवा उसके प्रश्नपर इस सारे कथनकी रचना की गई है और इसलिए यह 'उस ग्रंथसे भी बादका बना हुआ है। ५ एक स्थानपर, दूसरे खंडमें, निमित्ताध्यायका वर्णन करते हुए, अंथकर्ताने यह प्रतिज्ञा-वाक्य दिया है: पूर्वाचार्यथाप्रोकं दुर्गाद्येलादिभिर्यया । . गृहीत्वा तदभिप्राय तथा रिष्टं वदाम्यहम् ॥ ३०.१०॥
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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