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________________ चला आता हो, बादको होनेवाले किसी मी माननीय प्राचीन आचार्यकी कृतिमें नामोल्लेख तक न होना संदेहसे साली नहीं है। साथ ही, श्रवणबेलगोलंक श्रीयुत पंडित दबिलि जिनदास मादीनीस मालुम हुआ कि उधर दक्षिणदेशक भंडारोमै भद्रबाहुसंहिताकी कोई प्रति नहीं है और न उपर पहलेसे इस ग्रंथका नाम ही सुना जाता है। जिस देशमें भद्रबाहुका अन्तिम जीवन व्यतीत हुआ हो, जिस देशमें उनके शिष्यों और प्रशिष्योंका बहुत बड़ा संघ लगभग १२ वर्पतक रहा हो, जहाँ उनके शिष्यसम्प्रदायमें अनेक दिग्गजविद्वानोंकी शारसा प्रशाखायें फैली हों और जहाँपर धवल, महाधवल आदि ग्रन्थोंको सुरक्षित रखनेवाले मौजूद हों, वहाँपर उनकी, अद्यावधिपर्यंत जीवित रहनेवाली, एक मात्रसंहिताका नामतक सुनाई न पढ़े, यह कुछ कम आश्चर्यकी बात नहीं है। ऐसा होना कुछ अर्थ रखता है और वह उपेक्षा किये जानेके योग्य नहीं है। इन सब कारणोंसे यह बात बहत आवश्यक जान पड़ती है कि इस ग्रंथ (भद्रवाहुसंहिता) की परीक्षा की जाय और ग्रंथके साहित्यकी जाँच द्वारा यह मालूम किया जाय कि यह ग्रंथ वास्तव में कब बना है और इसे किसने बनाया है। इसी लिए आज पाठकोंका ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाता है। ग्रन्थकी विलक्षणता। जिस समय इस ग्रन्थको परीक्षा-दृष्टिसे अवलोकन करते हैं उस समय यह ग्रन्थ बढ़ा ही विलक्षण मालूम होता है । इस ग्रंथमें तीन खंड हैं-१ पूर्व, २ मध्यम, ३ उत्तर और श्लोकोंकी संख्या लगभग सात हजार है। परंतु ग्रंथके अन्तमें जो १८ श्लोकोंका 'अन्तिम वक्तव्य दिया है उसमें ग्रन्थके पाँच खंड बतलाये हैं और श्लोकोंकी संख्या १२ हजार सूचित की है । यथा: प्रथमो व्यवहाराख्यो ज्योतिराख्यो द्वितीयकः । तृतीयोपि निमित्ताख्यश्चतुर्थोपि शरीरजः ॥१॥
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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