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________________ (१०६) "शान्तिनाथमनुस्मृत्य येने केन प्रकाशितम् । दुर्भिक्षमारीशान्त्यर्थं विदध्यात्सुविधानकम् ॥ २२५ ॥ इसमें लिखा है कि 'दुर्भिक्ष और मरी ( उपलक्षणसे रोग तथा अन्य उत्पातादिक) की शांतिके लिए जिस किसी भी व्यक्तिने कोई अच्छा विधान प्रकाशित किया हो वह 'शांतिनाथको स्मरण करके-अर्थात् शांतिनाथकी पूजा उसके साथ जोड़ करके-जैनियोंको भी करलेना चाहिए। इससे साफ तौर पर अजैन विधानोंको जैन बनानेकी खुली आज्ञा और विधि पाई जाती है। इसी मंत्रके आधार पर, मालूम होता है कि, ग्रंथकर्ताने यह सब पूजन-विधान दूसरे धर्मोंसे उधार लेकर यहाँ रक्खा है । शायद इसी मंत्रकी शिक्षासे शिक्षित होकर ही उसने दूसरे बहुतसे प्रकरणोंको भी, जिनका परिचय पहले लेखोंमें दिया गया है, अजैन ग्रंथोंसे उठाकर इस संहितामें शामिल किया हो । और इस तरह पर उन्हें भद्रबाहुके वचन प्रगट करके जैनके कथन बनाया हो। परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, यह मंत्र बहुत बड़े कामका मंत्र है । देखने में छोटा मालूम होने पर भी इसका प्रकाश दूर तक फैलता है और यह अनेक बड़े बड़े विषयों पर भी अपना प्रकाश डालता है । इस लिए इसे महामंत्र कहना चाहिए । नहीं मालूम इस महामंत्रके प्रभावसे समय समय पर कितनी कथायें, कितने व्रत, कितने नियम, कितने विधान, कितने स्तोत्र, कितनी प्रार्थनायें, कितने पूजा-पाठ, कितने मंत्र और कितने सिद्धान्त तक जैनसाहित्यमें प्रविष्ट हुए हैं, जिन सबकी जाँच और परीक्षा होनेकी जरूरत है । जाँचसे पाठकों को मालूम होगा कि संसारमें धर्मोंकी पारस्परिक स्पर्धा और एक दूसरेकी देखा देखी आदि कारणोंसे कितने काम हो जाते हैं और फिर वे कैसे आप्तवाक्यका रूप धारण कर लेते हैं। १ शायद इसी लिए ग्रंथकाने, अपने अन्तिम वक्तव्यमें, इस संहिताका * महामंत्रयुता' ऐसा विशेषण दिया हो ?
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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