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________________ (९६) । वे उसके उन कार्यों में सहायक और अनुमोदक भी न हों और चाहे राजाके उस आचरणको बुरा ही समझते हों; परन्तु फिर भी उन सबको नरक जाना होगा! यह कहाँका न्याय और इन्साफ है !! जैनधर्मकी कर्मफिलासोफीके अनुसार कुटुम्बका प्रत्येक व्यक्ति अपने ही कृत्योंका उत्तरदायी और अपने ही उपार्जन किये हुए कर्मोंके फलका भोक्ता है। ऐसी हालतमें ऊपरका सिद्धान्त कदापि जैनधर्मका सिद्धान्त नहीं हो सकता । अस्तु; इसी प्रकारका एक कथन दायभाग नामके अध्यायमें भी पाया जाता है । यथाः " दत्तं चतुर्विधं द्रव्यं नैव गृहंति चोत्तमाः। अन्यथा सकुटुम्बास्ते प्रयान्ति नरकं ततः ॥७१ ।। इसमें लिखा है कि 'उत्तम पुरुष दिये हुए चार प्रकारके द्रव्यको वापिस नहीं लेते । और यदि ऐसा करते हैं तो वे उसके कारण कुटुम्बसाहित नरकमें जाते हैं। ऐसे अटकलपच्चू और अव्यवस्थित वाक्य कदापि केवली या श्रृंतकवलीके वचन नहीं हो सकते । उनके वाक्य बहुत ही जचे और तुले होने चाहिए । परन्तु ग्रन्थकर्ता इन्हें 'उपासकाध्ययन' से उद्धृत करके लिखना बयान करता है, जो द्वादशांगश्रुतका सांतवाँ अंग कहलाता है ! पाठक सोचें, कि ग्रंथकर्ता महाशय कितने सत्यवक्ता है ! कन्याओं पर आपत्ति। ... (१३) दूसरे खंडके 'लक्षण' नामक ३७ वें अध्यायमें, स्त्रियोंके कुलक्षणोंका वर्णन करते हुए, लिखा है कि : जिस. कन्याका नाम किसी नदी-देवी-कुल-आम्नाय-तीर्थ या वृक्षके नाम पर होवे उसका मुख नहीं देखना चाहिए। यथाः-. ." नदीदेवीकुलान्नायतीर्थवृक्षसुनामतः . . . . एतन्नामा च या कन्या तन्मुखं नावलोकयेत्॥ १२०॥".
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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