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________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। दीकायें हैं । जिनसेनत्रिवर्णाचारमें इस मुहूर्ताचन्तामाणि ग्रंथ और उस-. की टीकाओंसे बहुतसा गद्यपद्य उठाकर ज्योंका त्यों रक्खा गया है। इस गद्यपद्यको उठाकर रखनेमें भी उसी प्रकारकी धूर्तता और चाला-. कीसे काम लिया गया है जिसका दिग्दर्शन पाठकोंको ऊपर करायां गया है। अर्थात् जिनसेनत्रिवर्णाचारके बनानेवालेने कहीं भी यह प्रगट नहीं किया कि उसने यह कथन 'मुहूर्तचिन्तामणि' या उसकी 'टीकाओंसे लिया है । प्रत्युत इस बातकी बराबर चेष्टा की है कि यह सब कथन जैनाचार्योंका ही समझा जाय । यही कारण है कि उसने अनेक स्थानों पर हिन्दू ऋषियोंके नामोंको जैनाचार्योंके नामोंके साथ बदल दिया है और कहीं कहीं हिन्दू ऋषियोंके नामकी जगह 'अन्यः' 'अन्यमतं ' या 'अपरमतं' भी बना दिया है जिससे यह भी उसी सिससिलेमें जैनाचार्योंका ही मतविशेष समझा जाय । इसी प्रकार हिन्दूग्रंथोंके स्थानमें जैनग्रंथोंके नामका परिवर्तन भी किया है। इस धूर्तता और चालाकीके भी कुछ थोड़ेसे नमूने नीचे प्रगट किये जाते हैं: १-मुमूर्तचिन्तामणिके संस्कार प्रकरणमें, टीकाद्वारा यह प्रस्तावना करते हुए कि ' अथ प्राप्तकालत्वादक्षराणामारंभमुहूर्त पंचचामरछंदसाह ' एक पद्य इस प्रकार दिया है: " गणेशविष्णुवाग्रमाः प्रपूज्य पंचमाब्दके। .. तिथौ शिवार्कदिग्विषट्शरत्रिके रवावुदक् ॥ .. लघुश्रवो निलांत्यभादितीश तक्षमित्रभे। .. चरो न सत्तनौ शिशोलिपिग्रहः सतां दिने ॥३७॥" जिनसेनत्रिवर्णाचारके १२वें पर्वमें यह पद्य उपर्युक्त प्रस्तावनाके साथही दिया है। परन्तु इस पद्यको जैनमतका बनानेके लिए इसके पहले. चरणमें 'गणेशविष्णु' के स्थानमें 'जिनेशदवि' ऐसा परिवर्तन किया गया है और रमा (लक्ष्मी.) का पूजन बदस्तूर रक्खा है।
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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