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________________ जिनसेन - त्रिवर्णाचार । विशेषमाशौचमाह ' । अर्थात् अब पय द्वारा अशौचका विशेष कथन किया जाता है । इस प्रतिज्ञाके बाद, १८ वें पर्वमें, निम्नलिखित तीन श्लोक दिये हैं: С PA त्वा श्रीश्वरनाथाख्यं कृतिना मुक्तिदायकम् । विश्वमांगल्यकर्तारं नानाग्रंथपदप्रदम् ॥ १ ॥ ब्राह्मणक्षत्रवैश्यानां शूद्रादीनां विशेषतः । सूतकेन निवर्तेन विना पूजा न जायते ॥ २ ॥ रजः पुष्पं ऋतुचेति नामान्यस्यैव लोकतः । द्विविधं तत्तु नारीणां प्राकृतं विकृतं भवेत् ॥ ३ ॥ ये श्लोक परस्पर असम्बद्ध मालूम होते हैं। इन श्लोकों से पहले श्लोक में 'श्री ईश्वरनाथ नामके व्यक्तिको नमस्कार करके ' ऐसा लिखा है; परन्तु नमस्कार करके क्या करते हैं ऐसी प्रतिज्ञा कुछ नहीं दी। दूसरे श्लोकमें सूतकाचरणकी आवश्यकता प्रगट की गई है और तीसरे श्लोकमें यह लिखा है कि-रज, पुष्प और ऋतु, ये लोकव्यवहारमें इसीके नाम हैं और वह स्त्रियोंके दो प्रकारका होता है । एक प्राकृत और दूसरा विकृत । परन्तु इस श्लोक में 'अस्यैव' (इसीके ) और 'तत्' ( वह) शब्दोंसे किसका ग्रहण किया जाय, इस बातको बतलानेवाला कोई भी शब्द इस १८ वें पर्वमें इससे पहले नहीं आया है । इसलिए यह तीसरा श्लोक बिलकुल बेढंगा मालूम होता है। इस तीसरे श्लोकका सम्बंध १७ वें पर्वमें दिये हुए उप श्लोक नं ० ४ ( सूतकं स्याच्चतु... ) से भले प्रकार मिलता है। उस श्लोकमें जिस 'आर्तव के कथन की प्रतिज्ञा की गई है, उसी आर्तव कथनका सिलसिसिला इस श्लोक में और इससे आगेके श्लोकमें पाया जाता है। असलमें १. विशेष कथन सिर्फ़ इतना ही है कि इसमें 'आर्तव' नामके अशौचका भी कथन किया गया है; शेष जननाचौच और मृताशौचका कथन प्रायः पहले कथनसे मिलता जुलता है ।
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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