SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार । .. " दिया है। पहले श्लोकका तो कुछ अर्थ ही ठीक नहीं बैठता, उसके पूर्वार्धको उत्तरार्धसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं मिलता रहा दूसरा श्लोक उसका अर्थ यह होता है कि, 'प्रसूतिस्नान नामको जो कर्म "जिनागममें कहा गया है, मैं ज़िनसेन कहा जाता है, हे श्रेणिक रॉजी तू सुन ।' इस श्लोंकमें 'प्रोच्यते जिनसेनोऽहं ' यह पद बड़ी विलक्षण है। व्याकरणशास्त्र के अनुसार 'प्रोच्यते किया साथ 'जिनसनोऽहं' यह प्रथमा विभक्तिका रूप नहीं आ सकता और 'जिनसेनोऽहं के साथ 'प्रोच्यते । ऐसी क्रिया नहीं बन सकती। इसके सिवाय जिनसेनका राजा श्रेणिकको सम्बोधन करके कुछ कहना भी नितान्त असंगत है। राजा श्रेणिकके समयमें जिनसेनका कोई अस्तित्व ही न था। ग्रंथकताको शब्दशास्त्र और अर्थशास्त्रका कितना ज्ञान था और किस रीतिसे उन्हें शब्दोंका प्रयोग करना आता था, इसकी सारी कलई ऊपरके दोनों श्लोकोंसे खुल जाती है। इसी प्रकारके और भी बहुतसे अशुद्ध प्रयोग अनेक स्थानोंपर पाये जाते हैं। चौथे पर्वमें, जहाँ नदियोंको अर्घ चढ़ाये गये हैं वहाँ, बीसियों जगह ‘नयैकोऽर्घः' 'सुवर्णकूलायकोऽर्घः' तीर्थदेवतायैकोऽर्घः' इत्यादि अशुद्ध पद दिये गये हैं; जिनसे ग्रंथकर्ताकी संस्कृत-योग्यताका अच्छा परिचय मिलता है। , . (ड) इसी १२वें पर्वमें, 'प्रसूतिस्नात' प्रकरणसे पहले, मूल और अश्लेषा नक्षत्रोंकी पूजाका विधान वर्णन करते हुए. इस प्रकार लिखा है: 'ॐाठः स्वाहा' ए मंत्र भणी सर्षप तथा सुवर्णसं अभिषेक कीजे । पाछै दिसि बांधि तंत्र भणन 'ॐ नमो दिसि विदिसि आदिसौ. । ठऊ दिशउ भ्यः स्वाहा।' ए मंत्र त्रण बार भणीयं ताली ३ दीजई । आषांड छाली भणीई पहिलो को ते एंविधि करीने माता पिता बाल.. ६७ - । . . .
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy