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________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। निवेदनका गौतम स्वामीने क्या उत्तर दिया, यह कुछ भी न .बतलाकर ग्रंथकर्ताने इन दोनों श्लोकोंके अनन्तर ही, 'अर्थ क्रमेण सामायिकादिकथनम्, ' यह एक वाक्य दिया है और इस वाक्यके आगे यह पद्य लिखा है: "ध्यानं तावदहं वदामि विदुपां ज्ञानार्णवे यन्मतमात रौद्रसधय॑शुक्लचरमं दुःखादिसौख्यप्रदम् ।। पिंडस्थं च पदस्थरूपरहितं रूपस्थनामापरम् । तेपां भिन्नचतुश्चतुर्विपयजा भेदाः परे सन्ति वै ॥३॥" ऊपरके दोनों श्लोकोंके सम्बन्धसे ऐसा मालूम होता है कि गौतम स्वामाने इस पद्यसे आह्निक कर्मका कथन करना प्रारंभ किया है और इस पद्ममें आया हुआ 'अहं' (मैं) शब्द उन्हींका वाचक है । परन्तु इस पद्य ऐसी प्रतिज्ञा पाई जाती है कि मैं ज्ञानार्णन ग्रंथके अनुसार ध्यानका कथन करता हूँ। क्या गौतम स्वामीके समयमें भी ज्ञानार्णव ग्रंथ मौजूद था और आह्निक कर्मके पूछनेपर गौतम स्वामीका ऐसा. ही. प्रतिज्ञावाक्य होना चाहिये था ? कदापि नहीं । इस लिए आदिके दोनों श्लोकोंका इस तीसरे पद्यसे कुछ भी संबंध नहीं मिलता-उपर्युक्त दोनों श्लोक बिलकुल व्यर्थ मालुम होते हैं और इन श्लोकोंको रखनेसे ग्रंथकर्ताकी निरी मूर्खता टपकती है.। यह.तीसरा पद्य और इससे आगेके बहुतसे पद्य, वास्तवमें, सोमसेनत्रिवर्णाचारके पहले अध्यायसे उठाकर यहाँ रक्खे गये हैं। (ग) इस त्रिवर्णाचारके १थे पर्वमें संस्कारोंका वर्णन करते हुए एक स्थानपर ' अथ जातिवर्णनमाह ' ऐसा लिखकर नम्बर २३ से ५९ तक ३७ श्लोक दिये हैं । इन श्लोकोंमेंसे पहला और अन्तके दो श्लोक इस प्रकार हैं:
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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