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________________ ग्रन्य-पक्षिा । इस वातके निर्णयका नहीं है कि यह ग्रंथ वास्तबमें कवं बना है और किसने बनाया है। जिस समय इस ग्रंथको परीक्षादृष्टि से अवलोकन किया जाता है, उस समय इसमें कुछ और ही रंग और गुल खिला हुआ मालूम होता है। स्थान स्थान पर ऐसे पंधों या पद्योंके ढेरके ढेर नज़र पड़ते हैं, जो बिलकुल ज्योंके त्यों दूसरे ग्रन्थोंसे उठाकर ही नहीं किन्तु चुराकर रक्खे गये हैं। ग्रन्थकर्ताने उन्हें अपने ही भगट किये हैं। और तो क्या, मंगलाचरण तक भी इस ग्रंथका अपना नहीं है। वह भी पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथसे उठाकर रक्ता गया है । यथाः.. "तजयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः। . 'दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥१॥ परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलतितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥२॥ इसीसे पाठकगण समझ सकते हैं कि यह ग्रंथ भगवजिनसेनका बनाया हुआ हो सकता है या कि नहीं। जैनसमाजमें भगवाजिनसेन एक प्रतिष्ठित विद्वान आचार्य माने जाते हैं। उनकी अनुपम काव्यशक्तिकी बहुतसे विद्वानों, आचार्यों और कवियोंने मुक्त कंठसे स्तुति की है । जिन विद्वानोंको उनके बनाये हुए संस्कृत आदिपुराण और पार्वाभ्युदय आदि काव्य ग्रंथों पढ़नेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि भगवन्जिनसेन जितने बड़े प्रतिभाशाली विद्वान् हुए हैं । कविता करना तो उनके लिए एक प्रकारका तेल था। तब क्या ऐसे कविशिरोमणि मंगलाचरण तक भी अपना । बनाया हुआ न रखते ! यह कभी हो नहीं सकता । त्रिवर्णाचारके सम्पादकने इस पुरुषार्थसिद्धयुपायसे केवल मंगलाचरणके दो पद्य ही.. नहीं लिये, बल्कि.. इन पयोंके अनन्तरका तीसरा पद्य भी..लिया है
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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