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________________ ग्रन्थ-परीक्षा। संस्कृत भाषामें क्यों रचते ? परन्तु इसे रहने दीजिए । जैन समाजमें आजाल जो भगवाकुंदकुंदके निर्माण किये हुए समयसार. प्रवचनसारादि ग्रंथ प्रचलित हैं. उनमेंसे किसी भी ग्रंथकी आदिमें बुदकुदः स्वामीने 'जिनचंद्राचार्य' गुरुको नमस्ताररुप मंगलाचरण नहीं. किया है। परन्तु श्रावकाचरके ऊपर उद्धृत किये हुए, तीसरे एबमें 'वन्दे जिनविधुं गुरुन्' इस पके द्वारा 'जिनचंद्र गुरुको नमस्काररूप मंगलचरण पाया जाता है। कुंदवंदस्वामी ग्रंथाम आम तौर पर एक पद्या मंगलाचरण है। सिर्फ ' प्रवचनसार में पाँच पयांचा मंगलाचरण मिलता है। परंतु इस पाँच पयोंके विशेष मंगलाचरणमें भी जिनचंद्रगुरुको नमस्कार नहीं किया गया है । यह विलक्षणता इसी. श्रावमाचारमें पाई जाती हैं। रही मंगलाचरणके भाव और भाषानीबात, वह भी उत्त आचार्यके किसी ग्रंथत्ते इस श्रावनाचारही नहीं मिलती । विवक्लिासमें भी यही पञ्च है; भेद सिर्फ इतना है कि उसमें 'जिनविधु, के स्थानमें 'रिवरं ' लिता है । जिनदचारिक गुरु "जीवदेव' का नाम इस पथके चारों चरणोंके प्रथमाक्षरोंको मिलानेते. निकलता है। यथाः.. जीववत्प्रतिभा यस्य, 1 .. वचो मधुरिमांचितन् । । - देहं गेहं नियतं स्वं. जास्वादेव-जीवदेव । वन्दे भूविरं गुरुम् ॥३॥j बस इतनी ही इस पद्यमें कारीगरी (रचनाचाती) रक्सी गई है। और तौरपर इसमें कोई विशेष गोरखनी बात नहीं पाई जाती । विश्कबिलासले भाषाकारने भी इस रचनाचातुरीको प्रगट किया है । इससे. यह पन.चुदकुंदस्वामीका बनाया हुआ न होकर जीवदेव शिष्य जिनदत्तवारिका ही बनाया हुआ निश्चित होता है। अवश्य ही कुंदबुद ३६.
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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