SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थ-परीक्षा। १३-रजनीभोजनत्यागे ये गुणाः परितोपि तान् । न सर्वज्ञाहते कश्चिदपरो वकुमीश्वरः ॥३-७०॥ योगशास्त्र। रात्रिभुक्तिविमुक्तस्य ये गुणाः खलु जन्मिनः । ' सर्वज्ञमन्तरेणान्यो न तस्यरवक्तुमीश्वरः ॥ ३२७ ॥ -उमास्वा० आ० । योगशास्त्रके तीसरे प्रकाशमें, श्रीहेमचंद्राचार्यने १५ मलीन कर्मादानोंके त्यागनेका उपदेश दिया है । जिनमें पांच जीविका, पांच वाणिज्य और पांच अन्य कर्म हैं । इनके नाम दो श्लोकों (नं.९९-१००) में इस प्रकार दिये हैं: १ अंगारजीविका, २ वनजीविका, ३ शकटजीविका, ४ भाटकजी• विका, ५ स्फोटकजीविका, ६ दन्तवाणिज्य, ७ लाक्षावाणिज्य, ८ रसवाणिज्य, ९ केशवाणिज्य, १० विषवाणिज्य ११ यंत्रपीडा, १२ निलोछन, १३ असतीपोषण, १३ दवदान और १५ सरःशोष । इसके पश्चात् (श्लोक नं० ११३ तक ) इन १४ कर्मादानोंका पृथक पृथक् स्वरूप वर्णन किया है । जिसका कुछ नमूना इस प्रकार है: "अंगारभ्रष्टाकरणांकुंसायास्वर्णकारिता। . ठठारत्वेष्टकापाकावितीहागारजीविका ॥१०१॥ नवनीतवसाक्षौद्रमधप्रभृतिविक्रयः । द्विपाच्चतुष्पाद्विक्रेयो वाणिज्यं रसकेशयोः ॥ १०८ ॥ नासावेधोकनं सुष्कच्छेदनं पृष्ठगालनं । कर्णकम्बलविच्छेदो नि छनसुदीरितं ॥११॥ सारिकाशुकमार्जारश्वकुर्कटकलापिनाम् । । पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं विदुः ॥ ११२॥ . योगशास्त्र ।
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy