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________________ ग्रन्थ-परीक्षा। अतीतान्दशतं यत्स्यात् यच्च स्थापितमुत्तमैः । तचंगमपि पूज्यं स्याद्विम्बं तनिष्फलं न हि ॥ १०८॥" ये सब पद्य जिनदत्त सूरिकृत 'विवेकविलास' के प्रथम उल्लासमें क्रमशः नं. १४४, १४५, १७८ और १४० पर दर्ज हैं और प्रायः वहींसे उठाकर यहां रक्खे गये मालूम होते हैं । ऊपर जिन उत्तरार्ध और पूर्वाधाँको मिलाकर दो कोष्टक दिये गये हैं, विवेकविलासमें ये दोनों श्लोक इसी प्रकार स्वतंत्र रूपसे नं. १४४ और १४५ पर लिखे हैं। अर्थात् उत्तरार्धको पूर्वार्ध और पूर्वार्धको उत्तरार्ध लिखा है । उमास्वामिश्रावकाचारमें उपर्युक्त श्लोक नं. १०३ का पूर्वार्ध और श्लोक नं. १०५ का उत्तरार्ध इस प्रकारसे दिया है: " नवांगुले तु वृद्धिः स्यादुद्वेगस्तु षडांगुले (पूर्वार्ध)१०३॥" "काष्ठलेपायसां भूताः प्रतिमाः साम्प्रतं न हि (उत्तराध)१०५॥" श्लोक नं. १०५ के इस उत्तरार्धसे मालूम होता है कि उमास्वामिश्रावकाचारके रचयिताने विवेकविलासके समान काष्ठ, लेप और लोहेकी प्रतिमाओंका श्लोक नं. १०४ में विधान करके फिर उनका निषेध इन शब्दोंमें किया है कि आजकल ये काष्ठ, लेप और लोहेकी प्रतिमायें पूजनके योग्य नहीं हैं। इसका कारण अगले श्लोकमें यह बतलाया है कि ये वस्तुयें यथोक्त नहीं मिलती और जीवोत्पत्ति आदि. बहुतसे दोषोंकी संभावना रहती है । यथाः- . " योग्यस्तेषां यथोक्तानां लाभस्यापित्वभावतः। जीवोत्पत्त्यादयो दोषा बहवः संभवंति च ॥ १०६ ॥" ग्रंथकर्ताका यह हेतु भी विद्वज्जनोंके ध्यान देने योग्य है।
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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