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________________ जिनसेन - त्रिवर्णाचार | चरणका भेद है। यहाँ अन्तिम चरण 'नरकेषु निमज्जति ' (नरकोंमें पड़ता है), इस प्रकार दिया है । त्रिवर्णाचारमें इसी अन्तिम चरणको दलकर उसके स्थान में ' भन्ते नैव स्मरेजिनम् ' ऐसा बनाया गया है। इस परिवर्तनसे इतना जरूर हुआ है कि कुछ सजा कम हो गई है। नहीं तो बेचारेको, सात जन्म तक दरिद्री रहनेके सिवाय, नरकमें और जाना पड़ता ! ७- ऋतुकालमें भोग न करनेवाली स्त्रीकी गति । जिनसेन त्रिवर्णाचारके १२ में पर्वमें, गर्भाधानका वर्णन करते हुए, लिखा है कि- " ऋतुस्नाता तु या नारी पति नेवोपविन्दति । शुनी वृकी शृगाली स्याच्छ्रकरी गर्दभी च सा ॥ २७ ॥" अर्थात् ऋतुकालमें, स्नानके पश्चात्, जो सी अपने पति से संभोग नहीं करती है वह मरकर कुती, भेटिनी, गीदड़ी, सुअरी और गधी होती है। यह कथन बिलकुल जैनधर्मके विरुद्ध है । और इसने जैनियांकी सारी कर्मफिलासोफीको उठाकर ताकुमें रख दिया है । इसलिये यह कथन कदापि जैनाचार्योंका नहीं हो सकता । यह श्लोक भी, ज्योंका त्यों या कुछ परिवर्तनके साथ, हिन्दूधर्मके किसी ग्रंथसे लिया गया मालूम होता है । क्यों कि हिन्दूधर्मके ग्रंथोंमें ही इस प्रकारकी आशायें प्रचुरताके साथ पाई जाती हैं । उनके यहाँ जब ऋतुस्नाताके साथ भोग न करने पर पुरुषको नरकमें पहुँचाया है, तब क्या ऋतुखाता होकर भोग न करने पर स्त्रीको तिर्यंचगतिमें न भेजा होगा ? जरूर भेजा होगा | परादारजीने तो ऐसी खीको भी सीधा नरकमें ही भेजा है। और साथ ही वारम्वार विधवा होने का भी फ़तवा ( धर्मादेश) है दिया है । यथाः ११७
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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