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________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। देव पितरगण पानीके लिए भटकते या मारे मारे फिरते हैं। और न तर्पणके जलकी इच्छा रखते या उसको पाकर तृप्त और संतुष्ट होते हैं। इसी प्रकार न वे किसीकी धोती आदिका निचोड़ा हुआ पानी ग्रहण करते हैं और न किसीके शरीर परसे स्नानजलको पीते हैं। ये सब हिन्दूधर्मकी क्रियायें और कल्पनाएँ हैं । हिन्दुओंके यहाँ साफ़ लिखा है कि, जब कोई मनुष्य स्नानके लिए जाता है, तब प्याससे विह्वल हुए देव और पितरगण, पानीकी इच्छासे वायुका रूप धारण करके, उसके पीछे पीछे जाते हैं। और यदि वह मनुष्य स्नान करके वस्त्र (धोती आदि) निचोड़ देता है तो वे देव पितर निराश होकर लौट आते हैं । इसलिये तर्पणके पश्चात् वस्त्र निचोड़ना चाहिए, पहले नहीं। जैसा कि निम्न लिखित वचनसे प्रगट है: " स्नानार्थमभिगच्छन्तं देवाः पितृगणैः सह । वायुभूतास्तु गच्छन्ति तृपार्ताः सलिलार्थिनः ॥" "निराशास्ते निवर्तन्ते वस्त्रनिष्पीडने कृते। अतस्तर्पणानन्तरमेव वस्त्रं निष्पीडयेत् ॥” -स्मृतिरत्नाकरे वृद्धवसिष्ठः "। परन्तु जैनियोंका ऐसा सिद्धान्त नहीं है । जैनियोंके यहाँ मरनेके पश्चात् समस्त संसारी जीव अपने अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार देव, . मनुष्य, नरक और तिर्यंच, इन चार गतियों से किसी न किसी गतिमें अवश्य चले जाते हैं । और अधिकसे अधिक तीन समय तक 'निराहारक' रह कर तुरन्त दूसरा शरीर धारण कर लेते हैं । इन चारों गतियोंसे अलग पितरोंकी कोई निराली गति नहीं होती, जहाँ वे बिलकुल परावलम्बी हुए असंख्यात या अनन्त कालतक पड़े रहते हों। मनुष्यगतिमें जिस तरह पर वर्तमान मनुष्य किसीके तर्पणजलको पीते १०७
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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