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________________ थी । इन्हीं बनी साधकों के प्रति हम आज बुद्ध-वचनों के दायाच के लिये ऋणीहैं। शास्ता के समीप रहते भिक्षुओं को ज्ञान और दर्शन का बड़ा सहारा था। किन्तु उनके अनुपाधि-शेष-निर्वाण धातु में प्रवेश कर जाने के बाद उन्हें चारों ओर अन्धकार ही दिखाई देने लगा। यह ठीक है कि बुद्ध के समान ही उन्हें धम्म का महारा था। किन्तु साधारण जनता बहिर्मुखी थी। अन्तरात्मा की अपेक्षा वह बाहर ही अधिक देखती थी। फिर जिस 'धम्म' की शरण में शास्ता ने भिक्षुओं को छोड़ा था, उसका भी अस्तित्व अन्ततः उनके वचनों पर निर्भर था। उससे मात्र उन भिक्षुओं और अर्हतों का गुजारा हो सकता था, जिनको स्वयं शास्ता मे सुनने का अवमर मिला था। किन्तु बाद की जनताओं के लिये क्या होगा? जो भिक्षु भगवान् बुद्ध के जीवन काल में अपना अधिकतर समय और ध्यान बुद्ध-वचनों के स्मरण और मंग्रह करने के बजाय उनके व्यावहारिक अभ्यास में ही लगाते थे, उन्हें भी अब यह चिन्ता होने लगी कि हमारे बाद इम थाती का कौन सँभालेगा, दम प्रकाग के दीपक को एक पीढ़ी से दूसरी सीढ़ी तक कौन पहुँचायेगा? उनका इस प्रकार चिन्तित होना भावुकता पर भी आधारित नहीं था। स्वयं भिक्षु-संघ में इस प्रकार के लक्षण प्रकट हो रहे थे, जिनसे संयमी भिक्षुओं को दुःख होना स्वाभाविक था। अभी भगवान् के परिनिर्वाण को मान दिन भी नहीं हुए थे कि सुभद्र नामक बढ़ा भिक्षु कहता हुआ मुना गया था, "वम आयुप्मानो ! भत शोक करो! मन विलाप करो ! हम उस महाश्रमण से अच्छी तरह मुक्त हो गये । वह हमें सदा ही यह कह कर कह पीड़ित किया करता था यह तुम्हें विहित है, यह तुम्हें विहित नहीं है । अब हम जो चाहेंगे, करेंगे; जो नहीं चाहेंगे, मो नहीं करेंगे।'' सुभद्र जैसे अवीतराग अनेक भिक्षु भी उस समय मंघ में हो सकते थे। १. देखिये बुद्धचर्या, पृष्ठ ४६९-७२ २. यह भिक्षु इसी नाम के उस भिक्षु से भिन्न था, जिसने भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के समय प्रवज्या प्राप्त की थी और इस प्रकार जो उनका अन्तिम शिष्य था। ३. अलं आवसो! मा सोचित्य ! मा परिदेविथ ! सुमुत्ता मयं तेन महा. समणेन ! उपद्दता च होम। इदं वो कप्पति, इदं वो न कप्पतीति । इदानि पन मयं यं इच्छिस्साम तं करिस्साम। यं न इच्छिस्साम तं न करिस्साम। महापरिनिबाण-सुत्त (दोघ २१३); दिनय-पिटक-चुल्लबग्ग, पंचसतिक खन्धक ।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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