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________________ प्रकार की सन्धियों के आधार पर गायगर ने अनुमान किया है कि पालि में स्वतन्त्र रूप में प्रयुक्त होने वारेले 'व' (सं० 'इव' के लिये) 'पि' (सं० 'अपि' के लिये) 'ति' (सं० 'इति के लिये) 'दानि' (सं० 'इदानीं' के लिये); पोसथ (उपोसथ, सं० 'उपवसथ' के लिये) आदि शब्द लुप्त सन्धियों के स्मारक स्वरूप हैं। व्यंजन-परिवर्तन व्यंजनों का परिवर्तन पालि में प्रधानतः शब्द में उनकी स्थिति के अनुसार हुआ है। सामान्यतः संस्कृत आदि-व्यंजन पालि में सुरक्षित रहते हैं। मध्य-व्यंजनों का विकास मध्य-कालीन भारतीय आर्य भाषा-युग में तीन अवस्थाओं में हुआ है। पहली अवस्था में अघोष स्पर्श घोष हो जाते हैं । दूसरी अवस्था में घोष स्पर्श 'य' ध्वनि में परिवर्तित हो जाते हैं। तृतीय अवस्था में य ध्वनि का भी लोप हो जाता है। पालि में प्रधानतः प्रथम दो अवस्थाएँ ही पाई जाती हैं। तीसरी अवस्था का विकास प्राकृत भाषाओं में हुआ है। अन्त्य व्यंजन पालि और प्राकृतों में समान रूप से ही लुप्त कर दिये जाते हैं। व्यंजन-परिवर्तनों का विस्तृत अध्ययन इस प्रकार है। असंयुक्त व्यंजन (अ) आदि व्यंजन (१) सामान्यतः, शब्द के आदि में अवस्थित संस्कृत असंयुक्त व्यंजन (अल्पप्राण क्, त्, प्, ग्, द्, ब आदि और महाप्राण ख्, थ्, फ्, घ्, ध्, भ्, आदि) पालि में सुरक्षित रहते हैं। उदाहरणसंस्कृत पालि करोति करोति (प्राकृत करेदि) गच्छति गच्छति (प्राकृत गच्छेदि) चौरः चोरो जनः जनो ताडयति पुत्रः दन्तः दन्तो बधिर बहिरो खनति खनति ताडेदि पुत्तो
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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