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________________ ( ५९५ ) उसका एक विशेष लक्षण है। 'पज्जमधु' बुद्धप्पिय (बुद्धिप्रिय) नामक स्थविर की रचना है, जो स्थविर वैदेह (वेदेह थेर) के समकालीन सिंहली भिक्षु थे। 'पज्जमधु' की १०३ वीं गाथा में कवि-भिक्षु ने अपना परिचय देते हुए अपने को आनन्द का शिष्य' बताया है ।' आनन्द स्थविर वैदेह स्थविर के गुरु थे। अतः वैदेह स्थविर के साथ बुद्धप्पिय का समकालिक होना निश्चित है । इसलिए इनका काल भी वैदेह स्थविर के साथ तेरहवीं शताब्दी ही होना चाहिए, यह निश्चित है। सम्भवतः यही 'बुद्धप्रिय' 'रूपसिद्धि' व्याकरण के रचयिता भी है । उस रचना के अन्त में उन्होंने अपना नाम बुद्धप्पिय 'दीपंकर' बताया है और अपने को आनन्द स्थविर का शिष्य कहा है। अतः दोनों का एक व्यक्ति होना असम्भव नहीं है। सद्धम्मोपायन ६२९ गाथाओं में सद्धम्म के उपाय अथवा बुद्ध-धर्म के नैतिक मार्ग का वर्णन है। विषय नवीन न होते हुए भी शैली में पर्याप्त ओज और मौलिकता है । ग्रन्थ को दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है, (१) दुराचार के दुष्परिणाम (२) सदाचार की प्रशंसा या उसके सुपरिणाम । इसके साथ साथ बुद्ध-धर्म के प्रायः सभी मौलिक सिद्धान्तों का समावेश इस ग्रन्थ के अन्दर हो गया है, जिसे अत्यन्त प्रभावशाली और मननशील ढंग से कवि ने उपस्थित किया है। पाप-दुष्परिणाम, पुण्य-फल, दानप्रशंसा, शील-प्रशंसा, अ-प्रमाद आदि के काव्यमय वर्णन काफी अच्छे हुए हैं। पद्यबद्ध होते हुए भी 'सद्धम्मोपायन' के विवेचन इस विषय-सम्बन्धी गद्य-ग्रन्थों से अच्छी तरह मिलाये जा सकते हैं। उनको काव्य-मय रूप देने में और साथ ही १. आनन्दरा रतनादिमहायतिन्दा निच्चप्पबुद्धं पदुमप्पिय सेवि नंगी । बुद्ध प्पियन घनबुद्धगुणप्पियन थेरालिना रजितपज्जमधू पिवन्तु ॥ २. मिलाइये गायगरः पालिलिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ४४, ५१, विटरनिरताः हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २२३; गुणरल ने बुद्धप्रिय का काल सन् ११०० ई० के लगभग बताया है। देखिये जर्नल ऑव पालिटैक्स्ट सोसायटी, १८८७, पृष्ठ १ । ३. ई० मॉरिस द्वारा जर्नल ऑव पालिटेक्स्ट सोसायटी, १८८७, पृष्ठ ३५-९८ में सम्पादित ।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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