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________________ ( ५८४ ) कर देना यहाँ कवियों का प्रधान व्यवसाय रहा है । वैसे तो पालि काव्य-ग्रन्थ है हो अल्प और जो हैं भी उनमें भी किसी महनीय काव्य-परम्परा का प्रवर्तन नही मिलता । सब से बढ़कर तो कला के उस सृजनात्मक सौन्दर्य एवं कल्पना के दर्शन यहाँ नहीं होते जो किसी साहित्य को विशेषता प्रदान किया करता है । सम्भवतः यह इस कारण भी हो कि कल्पनात्मक मनोरागों के प्रदर्शन को स्थविरवादी वौद्ध परम्परा ने आरम्भ से ही अपनी साधना का अंग नहीं बनाया है। इतना ही नहीं, उसने इसे हेयता की दृष्टि से भी देखा है। इसलिये काव्य-प्रतिभा को वहाँ इतना प्रोत्साहन नहीं मिल सका है। भाषा की दृष्टि से भी पालि के इस काव्य-साहित्य का अधिक महत्त्व नहीं है । पालि साहित्य की प्राचीन मौलिकता के स्थान पर वह साहित्य संस्कृतापेक्षी अधिक हो गया है। अतः पालि साहित्य के इतिहास में उसके काव्य-साहित्य का विवेचन एक गौण स्थान का ही अधिकारी हो सकता है। काव्य-ग्रन्थ विषय की दृष्टि से पालि काव्य-ग्रन्थ दो भागों में विभक्त किये जा सकते है, (१) वर्णनात्मक काव्य-ग्रन्थ, (२) काव्य-आख्यान । यह भेद सिर्फ विषय के वाह्य स्वरूप का है । मुख्य प्रवृत्ति और शैली तो सब जगह एक सी ही है-- नैतिक आदर्शवाद और नीरस इतिवृत्तात्मक शैली। हाँ, कहीं कहीं रसात्मकता के भी पर्याप्त दर्शन होते हैं । मुख्य वर्णनात्मक काव्य-ग्रन्थ ये हैं (१) अनागतवंस (२) तेलकटाहगाथा (३) जिनालङ्कार (४) जिनचरित (५) पज्जमधु (६) सद्धम्मोपायन (७) पञ्चगतिदीपन और (८) लोकप्पदीपसार या लोकदीपसार । प्रधान काव्य आख्यान, जिनमें कुछ गद्य में भी हैं, ये हैं (१) रसवाहिनी (२) बुद्धालङ्कार (३) सहस्सवत्थुप्पकरण, और (४) राजाधिराजविलासिनी । इनका कुछ संक्षिप्त परिचयात्मक विवरण देना यहां आवश्यक हो गया। अनागतवंस' जैसा उसके नाम से स्पष्ट है, 'अनागत वंस' भविष्य (अनागत) में उत्पन्न १. मिनयेफ द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६, में रोमन अक्षरों ___ में सम्पादित।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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