SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५४५ ) वह लंका, बरमा और स्याम जैसे देशों की परिस्थिति की भी जहाँ बौद्ध धर्म आज एक जीवित धर्म के रूप में विद्यमान है, सूचक नहीं है । वहाँ पालि का अध्ययन आज भी उसी उत्साह के साथ किया जाता है, जैसा उन्नीसवीं या उसकी पूर्व की शताब्दियों में । फिरभी भारतकी ओरसे यह आश्वासन है कि वहाँ ज्ञानकी ज्योति क्षीण भले ही हो गई हो किन्तु बुझी फिरभी नहीं है । आचार्य धम्मानन्द कोसम्बी के रूप में हम फिर भी कुछ गौरव अनुभव कर सकते हैं। उन्होंने पालि साहित्य को, जैसा हम पहले भी कह चुके हैं, दो अमूल्य टीका-ग्रन्थ प्रदान किये हैं (१) विसुद्धिमग्गदीपिका, जो विसुद्धिमग्ग पर विद्यार्थियों के उपयोग के लिये लिखी गई उत्तम टीका है, और (२) अभिधम्मत्थसंगह की 'नवनीत-टीका' । अपने वर्षों के प्रयास के परिणाम-स्वरूप प्राप्त ज्ञान यहाँ आचार्य धमानन्द कोसम्बी ने अभिधम्म के जिज्ञासुओं के लिये अत्यन्त सुगम भाषा में प्रस्तुत किया है । अभिधम्म का अध्ययन करने वालों के लिये इससे अधिक अच्छा सहायक ग्रन्थ नहीं बताया जा सकता। इसी के प्रसाद-स्वरूप भिक्षु जगदीश काश्यप ने इस विषय का निरूपण अपने अंग्रेजी ग्रन्थ 'अभिधम्म-फिलॉसफी' में किया है, किन्तु यह इस विषय से सम्बन्धित नहीं है। इस युग की अन्य रचनाएँ ___ उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पालि-स्वाध्याय की जो परम्परा बुद्धघोष, बुद्धदत्त और धम्मपाल ने पाँचवीं शताब्दी में छोड़ी वह अविच्छिन्न रूप से बीसवीं शताब्दी तक चलती आरही है । यद्यपि उसमें मौलिकता न हो, किन्तु वह एक सतत साधना की सूचक तो है ही। यहाँ हमने बारहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक के टीका-साहित्य का ही प्रधानतः दिग्दर्शन किया है । कहीं कहीं काव्य सम्बन्धी ग्रन्थों का भी उल्लेख किया है और इसी प्रकार वंश-सम्बन्धी ग्रन्थों की ओर भी संकेत मात्र कर दिया है । उनका विवरण हमें काल-क्रम और विकास की दृष्टि से अलग देना इष्ट है । व्याकरण-सम्बन्धी प्रभूत साहित्य का निर्माण इन्हीं शताब्दियोंमें अर्थात् १२वीं शताब्दीसे लेकर उन्नीसवींया बीसवीं शताब्दी तक लंका और बरमा दोनों देशों में किया गया। उसका हमने बिलकुल उल्लेख इस प्रकरण में नहीं किया है । उसके विकास की परम्परा को हम अलग से (दसवें
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy