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________________ आठवाँ अध्याय बुद्धघोष-युग की परम्परा अथवा टीकाओं का युग (११०० ई० से वर्तमान समय तक) विपय-प्रवेश लंकाधिराज पराक्रमबाहु प्रथम (११५३-११८६ ई०) का गासन-काल पालि-साहित्य के उत्तरकालीन विकास के इतिहास में बड़ा गौरवमय माना जाता है । इसी समय से पालि अट्ठकथाओं के ऊपर टीकाएँ लिखने की वह महत्वपूर्ण परम्परा चल पड़ी जो ठीक उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी तक अप्रतिहत रूप से चलती रही। न केवल टीकाओं के रूप में ही बल्कि, काव्य, व्याकरण, कोग, छन्दः गास्त्र एवं 'वंश' (इतिहास) संबंधी साहित्य भो इन गताब्दियों में प्रभत मात्रा में लिखा गया। इस सव साहित्यिक प्रगति के क्षेत्र प्रधानतः लंका और वग्मा ही रहे। बारहवी शताब्दी से लेकर चौदहवी दशताब्दी तक साहित्य-सृजन के क्षेत्र में लंका का प्रमुख स्थान रहा । पन्द्रहवीं गताब्दी ने लेकर उन्नीसवी शताब्दी तक बरमी पालि-साहित्य का युग कहा जा सकता है। टीकाओं तक ही अपने को सीमित रखकर इस विशाल साहित्यरचना का विवेचन हम इम अध्याय में करेंगे । सिंहली भिक्षु सारिपुत्त और उनके शिष्यों की टीकाएँ पगक्रम बाहु प्रथम के शासन-काल में लंका में एक बौद्ध सभा (संगीति) वुलवाई गई। इस सभा का उद्देश्य अट्ठकथाओं पर मागधी (पालि) भाषा में टीकाएं लिखवाना था । इस सभा के संयोजक प्रसिद्ध सिंहली स्थविर महाकस्सप थे। इस सभा के प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप बुद्धघोष की अट्ठकथाओं पर पालि-भाषा में टीकाएँ लिखी गई, जिनका विवरण इस प्रकार है
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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