SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४४२ ) १५४. क्या एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के मन में सुख उत्पन्न कर सकता है ? हेतुवादियों का ऐसा विश्वास था। १५५. क्या एक ही समय अनेक वस्तुओं की ओर हम ध्यान दे सकते है ? पूर्वशैलीय और अपरशैलीय भिक्षुओं के मतानुसार यह सम्भव था। १५६-५७. क्या रूप भी एक हेतु है ? क्या यह हेतुओं से युक्त है ? ये दोनों मत उत्तरापथकों के थे। १५८. क्या रूप कुशल या अकुशल हो सकता है ? महीशासक और सम्मितिय भिक्षुओं का यह विश्वास था। १५९. क्या रूप कर्म-विपाक है ? अन्धक और मम्मितियों की मान्यता। १६०. क्या रूपावचर और अरूपावचर लोकों में भी रूप है ? अन्धकों का ऐसा ही विश्वास था। १६१. क्या रूप-राग और अरूप-राग, क्रमश: रूप-धातु और अरूप-धातु में सम्मिलित हैं ? अन्धकों की यही मान्यता थी। सत्रहवाँ अध्याय १६२. क्या अर्हत् भी पुण्यों का संचय करता है ? अन्धकों की मान्यता । १६३. क्या अर्हत् की अकाल मृत्यु नहीं हो सकती ? नहीं हो सकती, ऐसा राज गृहिक और सिद्धार्थक भिक्षु मानते थे। १६४. क्या हर वस्तु कर्मों के कारण है ? गजगृहिक और सिद्धार्थक भिक्षु ऐसा ही विश्वास रखते थे। १६५. क्या दुःख छ: इन्द्रिय-अनुभूतियों तक ही मीमित है ? हेतुवादियों की यह मान्यता थी। १६६. क्या आर्य-मार्ग को छोड़कर सभी वस्तुएं और संस्कार, दुःख (कृत) है ? हेतुवादियों का ऐसा ही विश्वास था। १६७. क्या यह कहना गलत है कि संघ दान ग्रहण करता है। यह मत वैतुल्यक नामक महानून्यतावादियों का था। संघ की चार आर्य-मार्गों और उनके फलों के रूप में व्याख्या करना इनका मुन्य सिद्धान्त था। इनके सिद्धान्तों में हम महायान-धर्म के बीज पाते है।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy